Friday, January 1, 2010

नदी छूट गयी, हमारी जिंदगी छूट गयी

एक बार फिर समय की कसौटी हमारे सामने हैं। नए साल के रूप में। २००९ की विदाई के बाद २०१० तो आना ही था। और वो आ गया। पिछले साल की बेतरतीब ज़िन्दगी को कुछ सलीके में लाने की जद्दोजहद के साथ एक दूसरे को बधाइयाँ देते हुए। पर ज़िन्दगी को व्यवस्थित करने की हमारी यह रफ़्तार धीरे-धीरे धीमी पद जएगी महीने दर महीने और २०१० के अंत तक एक बार फिर बेतरतीब। और नए संकल्पों के साथ सलीके के ढलने की हमरी जिद और धीरे-धीरे फिर ज़िन्दगी का बेतरतीबी की ओर बढ़ते जाना। पर सवाल यह है कि जिसे हम सलीका कहते हैं क्या वास्तव में वो सलीका है भी या नहीं? शायद हम मशीन होते जाने की प्रक्रिया को सलीका कहते हैं, गोया ज़िन्दगी भी मशीन हो। तो ज़िन्दगी का सलीका है क्या?
इसे हम नदी की धारा से समझ सकते हैं। मशीन से परे, अपनी ही चल में मस्त, कभी इधर तो कभी उधर, कभी कूदना तो कभी फांदना, कभी पतली तो कभी चौड़ी, कभी-कभी कहीं सूखी भी। पर क्या हमने कभी सोचा हैं कि नदी को सलीके में लाने की प्रक्रिया में हम नदी को ख़त्म कर देते हैं। हमारे सामने मरती हुई नदियों की फेहरिस्त है, शायद आपके पास भी होगी।
ज़िन्दगी और नदी यानी अपने ही रौ में बहते जाने की कहानी।
पर बात फिर वही आकर रुक जाती है कि ज़िन्दगी का सलीका है क्या? तो हमें ये अपने से ही पूछना होगा कि जिस सलीके कि ओर हम जाना चाहते हैं वो हमने तय किया है कि बाज़ार ने। आज बाज़ार ही तो सब कुछ तय कर रहा है। ऐसे में हम जिस सलीके कि ओर बढ़ना चाहते हैं वो सलीका भी बाज़ार ने ही तय किया है। बिना किसी सोच के, बिना किसी विचार के हम वो करते जा रहे हैं जिसे बाज़ार ने तय किया है। बाज़ार तो चाहता है कि आप कुछ सोचें नहीं, कुछ सवाल खड़ा नहीं करे और जो तय है उसे करते जाएँ। तय तो यही है कि आप रात दिन लगे रहे काम काम पर, कुछ दिन कि छुट्टी आपको इतना पीछे कर देगी कि आपसे वे सब आगे निकल जायेंगे जो आपसे पीछे थे।
पर आज एक बार फिर सोच लें, इस दौड़ में आपके साथ कौन-कौन हैं, कौन पीछे छूट गया, पीछे मुड़ कर देख ले तो जरा।
अरे!!!! ये क्या, हम २०१० में आ गए और हमारी जिंदगी २००९ में रह गयी, नहीं-नहीं शायद उससे भी पीछे १९९० के पहले। ओह!!! ये क्या हो गया। हम इतने आगे निकल आये - नदी छूट गयी, हमारी जिंदगी छूट गयी।
चलो हम मुड़ चले, ले आयें अपनी नदी को, अपनी ज़िन्दगी को।