Monday, August 12, 2013

ग्रामीण विकास के लिए जागरूक समूह

गांवों के विकास के लिए सरकार, स्वैच्छिक संस्थाएं एवं जन संगठन अलग-अलग तरीके से कार्य कर रहे हैं। ग्रामीण विकास को लेकर भारत सरकार पिछले कुछ सालों से ज्यादा सक्रिय दिखाई दे रही है। गांवों में योजनाओं एवं संसाधनों में भारी बढ़ोतरी हुई है। इसके बावजूद जिस तेजी से विकास होना चाहिए था, उस तेजी से संभव नहीं हो पा रहा है। गांव के अंदर से ऐसा कोई सहयोगी समूह या निगरानी तंत्र नहीं दिखाई पड़ रहा है, जो गांव में आने वाली योजनाओं की गुणवत्ता की निगरानी कर सके, लोगों को अपने व्यवहार परिवर्तन के लिए प्रेरित कर सके या सामाजिक अंकेक्षण की प्रक्रिया में भाग ले सके। इस तरह के प्रयोग कोई नए नहीं हैं, पर इन्हें मजबूत करने की जरूरत है।

कई स्वैच्छिक संस्थाएं एवं संगठन ऐसे प्रयोग किए हैं एवं कर रहे हैं। मंडला, झाबुआ एवं सीहोर में किशोरावस्था एवं प्रजनन स्वास्थ्य को लेकर गठित किशोर-किशोरियों के समूह ने बेहतर कार्य किया था। उन्होंने न केवल प्रजनन एवं व्यक्तिगत साफ-सफाई की जरूरतों एवं आदतों में बदलाव किया बल्कि किशोरों ने नशा से तौबा करने का निश्चय भी किया। इसी तरह प्रदेश के कई जिलों में सक्रिय ग्रामीण समूहों ने महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना के सामाजिक अंकेक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सीहोर के कई पंचायतों में बाल सहयोगी समूह सक्रिय है, जो बाल स्वच्छता पर अपनी भूमिका निभा रहा है। समूह अपने अधिकार या विकास के बजाय शालाओं में पेयजल, शौचालय की व्यवस्था, व्यक्गित साफ-सफाई एवं शालाओं से बाहर भी बाल स्वच्छता को बेहतर बनाने के लिए सक्रिय है। इसमें बाल अधिकारों के प्रति संवेदनषील, बच्चों की बातों को पंचायत, ग्राम सभा और सेवादाताओं के समक्ष रखने में सक्षम होने के साथ-साथ समस्याओं के समाधान में सहयोग प्रदान करने वाले युवा शामिल हैं। ऐसे समूहों को ग्रामीण विकास से जुड़ी अन्य योजनाओं के प्रति भी सक्रिय होना चाहिए।

निश्चय ही जब ग्रामीण विकास पर सरकारें इतना व्यय कर रही हैं, तो स्थानीय सहयोगी समूह को ज्यादा सक्रिय होने की जरूरत है। ऐसे समूह सभी गांव में बन जाएं, तो बेहतर तरीके से सामाजिक एवं ग्रामीण विकास हो सकता है।

Monday, August 20, 2012

रोजगार गारंटी पर आम आदमी

महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना को लेकर हाल ही में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा तैयार समीक्षा रिपोर्ट को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विमोचित किया। बहुत सारी उपलब्धियों के साथ-साथ कमियों पर टिप्पणी, सुझाव एवं नसीहतों के साथ उन्होंने अपना भाषण दिया। उम्मीद की जा सकती है कि देश के एक शीर्ष व्यक्ति द्वारा योजना की समीक्षा पर व्यक्त किए गए विचारों के परिप्रेक्ष्य में नीति निर्माता रोजगार गारंटी योजना में सुधार और आम आदमी तक योजना का बेहतर लाभ पहुंचाने के उपाय पर काम करेंगे। शीर्ष स्तर की इस समीक्षा के साथ-साथ एक आम आदमी की समीक्षा को भी जानना बड़ा दिलचस्प है। रोजगार गारंटी को लेकर श्योपुर जिले के गोरस एवं श्यामपुर के बीच हाइवे पर मिले एक आम आदमी का विचार बहुत ही रोचक है।

बारिश में श्योपुर-सबलगढ़ हाइवे पर दोपहर के समय इकादुक्का गाड़ियों के आवागमन के बीच सामने से आता हुआ एक आदमी दिखाई दिया। वह पास के गांव में रहने वाला सहरिया आदिवासी था, जो अपनी गुम हो गई गाय को ढंूढ़ने के लिए इस खराब मौसम में निकला था। गांव की स्थिति एवं रोजगार गारंटी पर बातचीत में उसकी सबसे ज्यादा नाराजगी निर्माण कार्यों की गुणवत्ता को लेकर था। उसने बताया कि कैसे उसके गांव में तालाब बनाने की औपचारिकता पूरी की गई एवं जब उसने आवाज उठाने की कोशिश की, तो अधिकारियों ने उसकी आवाज दबा दी। कुछ ने यह भी कह दिया कि सहरिया आदिवासी दारू पीकर कुछ भी बक रहा है।

उसने कपिलधारा योजना के तहत बन रहे कुएं को लेकर गंभीर बात की। कपिलधारा योजना में संशोधन का सुझाव देते हुए उसने बताया कि वर्तमान में जमीन का पानी बहुत ही नीचे चला गया है। ऐसी स्थिति में कुआं खोदने पर उसमें पानी निकलने की संभावना कम रहती है। यदि एक कुएं को 30-35 फीट तक भी खोद दिया जाए, तो पानी नहीं मिलता है। कुएं के निर्माण में बहुत ज्यादा राशि खर्च होती है। पानी नहीं निकलने से किसान के खेत का एक हिस्सा बेकार हो जाता है। उसका यह मानना था कि कपिलधारा योजना के तहत ट्यूबवेल की अनुमति देनी चाहिए। खेत पर एक छोटा खेत तालाब बनाकर उसके बीच में ट्यूबवेल लगा देना चाहिए, जिससे किसान को लगातार पानी भी मिलता रहे एवं वहां का भूजल भी रिचार्ज हो जाए। इस कार्य में भी लगभग उतना ही खर्च आएगा, जितना कुआं बनाने में खर्च होगा। 

यह तर्क बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम यह देख रहे हैं कि कपिलधारा के तहत कुआं बनाने के लिए जितनी राशि दी जाती है, उतने में खुदे गए कई कुओं से पानी नहीं निकल रहा है। बहुत सारे कुओं का निर्माण भी अधूरा पड़ा हुआ है। ऐसे में योजना के तहत कुछ ज्यादा राशि भी खर्च करनी पड़े, तो हमें एक आम आदमी की इस समीक्षा पर ध्यान देना चाहिए।

Wednesday, April 4, 2012

गरीबों के हक पर कुंडली क्यों

ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की विसंगतियों को दूर कर इसे बेहतर बनाया जा सकता है, पर गरीबों के प्रति बेरुखी, योजना के प्रति लापरवाही एवं भ्रष्टाचार के कारण इसे प्राथमिकता से नहीं लिया जा रहा है।


देश में गरीबी दूर करने के लिए एवं गरीबों को राहत देने के उद्देश्य से आजादी के बाद लगातार योजनाएं एवं नीतियां बनाई गई, यहां तक कि 1971 के आम चुनाव में ‘‘गरीबी हटाओ’’ का नारा भी दिया गया, पर दुखद बात यह है कि आज भी गरीबी अपने विकराल रूप में मौजूद है। देश में गरीबी हटाने के उपाय सफल नहीं हो रहे हैं, इसलिए गरीबों को हटाने की योजना पर अमल किया जाने लगा है। अभी हाल ही में योजना आयोग ने गरीबी की परिभाषा बदलते हुए देश में गरीबों की संख्या घटा दिया। योजना आयोग के इस रवैये की संसद के अंदर एवं बाहर कड़ी आलोचना की जा रही है। योजना आयोग के इस रूख ने यह जतला दिया कि देश में गरीबी दूर हो या न हो, पर गरीबों को उनके हाल पर छोड़कर उन्हें गरीब मानने से इनकार कर दिया जाए।

देश में गरीबी को लेकर जिस तरह के भी आंकड़ें पेश किए जाए, पर उनमें यह साफ पता चलता है कि शहरों की तुलना में गांवों में ज्यादा गरीबी है। यही वजह है कि गांवों से बड़े पैमाने पर शहरों की ओर पलायन होता है। पिछले कई दशकों में गरीबी हटाने के किए गए प्रयासों के बाद केंद्र सरकार ने 2005 में एक महत्वकांक्षी योजना को कानूनी दायरे में बांधकर लागू किया, जिसे शुरू में नरेगा, फिर मनरेगा के नाम से जानते हैं। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना केंद्र सरकार की एक ऐसी योजना है, जिसके माध्यम से गांवों से पलायन रोकने एवं गरीबी दूर करने का खाका खिंचा गया। पर मनरेगा के सात साल बाद भी इसमें व्याप्त विसंगतियों को दूर नहीं किए जाने से समस्याएं जस की तस बनी हुई है।

मध्यप्रदेश में मनरेगा शुरू से ही विवादों में रहा है। कई स्वतंत्र सर्वे में सामने आया कि करोड़ों का भ्रष्टाचार हो रहा है। ऐसे में गरीबी दूर होने के बजाय गरीबों के नाम पर आ रही राशि से अधिकारियों, कर्मचारियों एवं पंचायत प्रतिनिधियों की चांदी हो रही है। आश्चर्य की बात है कि इस योजना को लागू हुए छह साल से अधिक हो गए, पर अभी तक गांवों में इसके नियमों के बारे में लोगों तक जानकारी नहीं पहुंचाई जा सकी है। योजना के बारे में सभी ग्रामीणों को मालूम है, पर योजना का लाभ नियमानुसार कैसे लें, काम नहीं मिलने पर बेरोजगारी भत्ता कैसे लें, देर से भुगतान होने पर मुआवजा के लिए क्या करना होगा एवं आखिरकार इस योजना का सही मायने में उन्हें लाभ कैसे मिल पाएगा एवं यह उनके लिए क्यों उपयोगी है, जैसे कई सवालों का उत्तर ग्रामीणों के पास नहीं है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है कि योजना का क्रियान्वयन करने वाले नहीं चाहते कि लोगों को सही जानकारी हो। योजना में पारदर्शिता, जवाबदेही एवं सामाजिक निगरानी का बहुत ही ज्यादा उपेक्षा की जा रही है, जिसकी स्पष्ट वजह भ्रष्टाचार में लिप्तता है।

प्रदेश सरकार एक ओर इस बात को लेकर अपना पीठ खुद थपथपा रही है कि केंद्र सरकार ने मनरेगा को लेकर प्रमाण पत्र दिया है कि मध्यप्रदेश में योजना का क्रियान्वयन बेहतर तरीके से हो रहा है। इतना बेहतर देश के किसी अन्य राज्य में नहीं हो रहा है। सरकार यह भी दावा कर रही है कि शासन ने अधिकतम पारदर्शिता की कोशिश एवं पारिश्रमिक जल्द से जल्द दिलवाने की व्यवस्था की है। पर दूसरी ओर जमीनी स्तर पर देखा जाए, तो इसका स्पष्ट अभाव दिख रहा है। प्रदेश में मनरेगा को लेकर भ्रष्टाचार के कई मामलों में आईएएस अधिकारियों से लेकर नीचले स्तर के कर्मचारियों पर आरोप लगे हैं, पर कार्रवाई करने के नाम पर सिर्फ नीचले स्तर के कर्मचारियों को दबोचा जा रहा है, जबकि बिना उच्च अधिकारियों की मिली भगत के गांव स्तर के कर्मचारी या पंचायत प्रतिनिधि भ्रष्टाचार नहीं कर सकते। सरकार ने भी समय-समय पर कलेक्टर, जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी, जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी आदि पर शुरुआती तौर पर कार्रवाई की है, पर उसका कोई परिणाम नहीं निकल पाया एवं उनमें से अधिकांश वर्तमान में बेहतर जगह पर पदस्थ हैं। एक तरह से यह कहा जा सकता है कि गरीबों के नाम पर आने वाले पैसे पर जिन लोगों ने कुंडली मार लिया है, उन्हें कोई सजा नहीं मिल रही है एवं इसी का परिणाम है कि योजना से भ्रष्टाचार को खत्म नहीं किया जा सका है।

गांव में मजदूरी समय से नहीं मिल रही है, पर चूंकि काम की मांग मौखिक ज्यादा है, इसलिए ग्रामीण बेरोजगारी भत्ता की मांग नहीं कर पा रहे हैं। गरीबों को यह लग रहा है कि इस योजना में काम के इंतजार से बेहतर है कि अन्य काम की तलाश में पलायन कर लिया जाए। दूसरी सबसे बड़ी समस्या देर से मजदूरी का भुगतान है। इसके पीछे भले ही कुछ भी तर्क दिया जाए, पर देर से भुगतान पर मुआवजा देने से बचा जा रहा है एवं मजदूरी के लिए गरीब मजदूर लंबा इंतजार करने को विवश हो रहे हैं। इन स्थितियों को देखकर ऐसा लग रहा है कि सरकार की यह मंशा कतई नहीं है कि गरीब वर्ग के लोग गरीबी से बाहर आएं। गरीबी की परिभाषा चाहे कुछ भी हो जाए, पर लोगों को रोजगार एवं सामाजिक सुरक्षा दिए बिना सामाजिक एवं आर्थिक विकास में किसी परिवर्तन की अपेक्षा नहीं की जा सकती।