Monday, August 11, 2008

कभी-कभार

कभी-कभार शीर्षक से आप यह न समझ बैठना कि मैंने अशोक जी के कॉलम पर कुछ लिखने का निर्णय लिया है। बात इससे बिल्कुल जुदा है। कभी कभार क्या से क्या हो जाता है, कुछ समझ में नहीं आता। आखिर यह कभी कभार का काल आता क्यूं है। पर इसको कभी कभार आना होता है तो आएगा ही, बचना मुश्किल है। इस कभी कभार वाले काल से गुजरते हुए बहुत खुश रहने वाला उदास हो जाता है तो उदास रहने वाला खुश हो जाता है। होने को तो कोई भी कारण हो सकता है पर कभी कभार कारण को पहचान पाना मुश्किल हो जाता है और ऐसा होता भी कभी कभार ही है। कल के दिन घंटों झील के किनारे सचिन बुन्देलखंडी के साथ बैठा रहा और कई बातें हुई, साथ ही मैंने फिशिंग करने की कोशिश भी कि पर एक भी हाथ नहीं आई। पूरे तालाब में कितनी मछलियाँ होंगी, एक अनुमान लगाया, पर मेरे हिस्से कि नहीं थी तो कांटे में नहीं आई। खैर, बात कभी कभार की हो रही थी और मैं आपको तालाब पर लेकर चला गया। वो भी भोपाल के बड़े तालाब पर, जहाँ जाकर लौटने को मन नहीं करता। पर कभी कभार ऐसा ही होता है, जाना कही और होता है और हम चले कही और जाते हैं। वापस आने की चाह होती है पर कभी कभार हम इतना आगे चले जाते है कि वापस आने के लिए कभी कभार बहुत सोचना पड़ता है। कभी कभार तो लौट ही नहीं पाते और कभी कभार जल्दी निर्णय ले लेते है वापसी का। बाज़ार भी तो है जो रोक देता है कोई भी नए निर्णय लेने से। पर बाज़ार भी क्या करे, उसकी तो आदत है। गलती तो अपनी है कि हम उसके रस्ते चल पड़ते है। कभी कभार रास्ता बदलना भी पड़ता है और कभी कभार रास्ता ख़ुद ब ख़ुद बदल जाता है। रास्ता कभी कभार क्यूं बदलना पड़ता है यह समझ में नहीं आता या फिर जी चाहता है समझ कर भी नहीं समझा जाए। हालत कभी कभार मुश्किल में होते है और कभी कभार कुछ सूझता नहीं किया क्या जाए। बहुत कुछ करने के बाद भी कभी कभार नतीजा सिफर ही होता है और कभी कभार... । कभी कभार मौसम भी और कभी कभार अपने भी.... साथ। खैर कभी कभार आप भी सोचे की कभी कभार ऐसा क्यों होता है।