कुछ दिन पूर्व नवरात्री एवं दशहरा को लेकर कुछ मित्रों से चर्चा हो रही थी। चर्चा में लगभग सभी अपने-अपने बचपन की यादों को ताजा कर रहे थे। बचपन में इस त्यौहारी मौसम का इंतजार, भागीदारी, घुमना, मस्ती करना जैसे कई प्रसंगों पर बातें। और अंत में उनदिनों की आज से तुलना करते हुए यह कहना कि वैसी रामलीला या दशहरा अब कहां देखने को मिलता है।
यह एक मुश्किल काम है कि पूर्व की तुलना वर्तमान से किया जाए। यदि आज के बच्चों को उन दिनों की तरह सहज एवं साधारण रामलीला देखने को मिले, तो वे शायद ही उन्हें देखने जाए। आज इतने ग्लैमराइज्ड तरीके से रावण का पुतला दहन कार्यक्रम आयोजित करने के बावजूद उसमें उमड़ने वाली भीड़ शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्र के कमजोर तबके की ज्यादा होती है।
जब हम अपने बचपन के दिनों को याद करते हैं, तो उनदिनों की उत्सवधर्मिता आज से कई मायने में बेहतर थी। मुझे अपने बचपन की याद आज भी है, जब मैं गांव में रहा करता था। उन दिनों दशहरा का बेसब्री से इंतजार रहता था। मतलब कुछ खास होता था - दस दिनों की छुट्टी। दशहरा के पहले नवरात्री में नवदुर्गा की झांकियां और दसवें दिन रावण का पुतला दहन। उन दिनों गली-गली में नवदुर्गा की झांकियां नहीं होती थी और न ही हर गांव में या मोहल्ले में रावण दहन। शायद इसलिए इस आयोजन को देखने के प्रति खास लगाव होता था। मेरे गांव से शहर की दूरी लगभग 8 किलोमीटर है। वहीं रामलीला का बड़ा आयोजन होता था। रामलीला का आयोजन दस दिन तक और दसवें दिन यानी रावण दहन।
बहुत मजा आता था, जब रामलीला में अलग-अलग प्रसंगों में लोकगीतों की प्रस्तुति होती थी। ढोलक, हारमोनियम के वादन पर नायिकाओं द्वारा गीतों की प्रस्तुति देखते हुए यह नहीं लगता था कि रामलीला देख रहे हैं। बल्कि वह एक अलग टुकड़ा ही होता था, जो लोगों को दर्शक दीर्घा में बांधे रखने के लिए जरूरी होता था। लंबी तान पर चारों ओर घुमते हुए विरह का दृश्य हो, तो भी लोगों के चेहरे पर मुस्कराहट देखी जा सकती थी। कई ऐसे वाकये भी हुए, जब लंकेश की ओर के पात्रों के प्रति संवेदनाएं जाग जाती थी। ऐसा लगता था कि बेचारा! नाहक ही पंगा ले लिया है। क्या जरूरत थी, राम से पंगा लेने की। वैसे समय पर राम की ओर के पात्रों पर गुस्सा आता था। राक्षस पात्रों की भूमिका निभा रहे बच्चों के मासूम चेहरे महिलाओं की ममता के हकदार बन जाते थे।
कई बार पात्र अपना डायलॉग भूल जाते थे। उस समय हास्यास्पद स्थिति बन जाती थी। पर्दे के पीछे से पात्रों को डायलॉग पढ़कर सुनाया जाता था और फिर मंच पर पात्र उसे दोहराते थे। ऐसा नहीं है कि इस तरह की प्रस्तुति को कोई खराब कह दे या फिर खारिज कर दे। यह बता पाना मुश्किल है कि वह आस्था का कारण था या फिर लोक संस्कृति के प्रति सम्मान का।
उन दिनों की एक बात और ज्यादा मायने रखती थी, वह है साझा संस्कृति की। रामलीला का आयोजन समाज की ओर से किया जाता था। वह पूरे समाज की उत्सवधर्मिता थी। उसमें धर्म या जाति का सरोकार मायने नहीं रखता था। एक-दूसरे के प्रति सम्मान का खास ख्याल रखा जाता था। तब इस ओर ध्यान ही नहीं जाता था कि इसमें दूसरे धर्मावलंबियों की भागीदारी कितनी है। ऐसे आयोजन से एक-दूसरे के नजदीक आने के बहाने मिलते थे।
निश्चय ही इस तरह से देखा जाए, तो तब और अब में बहुत फर्क नजर आता है। आज विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच कटुता की पाट चौड़ी की जा रही है, जिसकी वजह से कोई भी आयोजन सामाजिक कम, धार्मिक ज्यादा बनता जा रहा है। इससे समाज के विभिन्न समुदायों के बीच समभाव की भावना घटती जा रही है। अब दशहरा का आयोजन भव्यता और प्रतियोगी भाव का आयोजन बन गया है। ऐसे में अपने बचपन के दिनों वाले दशहरा को याद किया जाए, तो क्या गलत है?