ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की विसंगतियों को दूर कर इसे बेहतर बनाया जा सकता है, पर गरीबों के प्रति बेरुखी, योजना के प्रति लापरवाही एवं भ्रष्टाचार के कारण इसे प्राथमिकता से नहीं लिया जा रहा है।
देश में गरीबी दूर करने के लिए एवं गरीबों को राहत देने के उद्देश्य से आजादी के बाद लगातार योजनाएं एवं नीतियां बनाई गई, यहां तक कि 1971 के आम चुनाव में ‘‘गरीबी हटाओ’’ का नारा भी दिया गया, पर दुखद बात यह है कि आज भी गरीबी अपने विकराल रूप में मौजूद है। देश में गरीबी हटाने के उपाय सफल नहीं हो रहे हैं, इसलिए गरीबों को हटाने की योजना पर अमल किया जाने लगा है। अभी हाल ही में योजना आयोग ने गरीबी की परिभाषा बदलते हुए देश में गरीबों की संख्या घटा दिया। योजना आयोग के इस रवैये की संसद के अंदर एवं बाहर कड़ी आलोचना की जा रही है। योजना आयोग के इस रूख ने यह जतला दिया कि देश में गरीबी दूर हो या न हो, पर गरीबों को उनके हाल पर छोड़कर उन्हें गरीब मानने से इनकार कर दिया जाए।
देश में गरीबी को लेकर जिस तरह के भी आंकड़ें पेश किए जाए, पर उनमें यह साफ पता चलता है कि शहरों की तुलना में गांवों में ज्यादा गरीबी है। यही वजह है कि गांवों से बड़े पैमाने पर शहरों की ओर पलायन होता है। पिछले कई दशकों में गरीबी हटाने के किए गए प्रयासों के बाद केंद्र सरकार ने 2005 में एक महत्वकांक्षी योजना को कानूनी दायरे में बांधकर लागू किया, जिसे शुरू में नरेगा, फिर मनरेगा के नाम से जानते हैं। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना केंद्र सरकार की एक ऐसी योजना है, जिसके माध्यम से गांवों से पलायन रोकने एवं गरीबी दूर करने का खाका खिंचा गया। पर मनरेगा के सात साल बाद भी इसमें व्याप्त विसंगतियों को दूर नहीं किए जाने से समस्याएं जस की तस बनी हुई है।
मध्यप्रदेश में मनरेगा शुरू से ही विवादों में रहा है। कई स्वतंत्र सर्वे में सामने आया कि करोड़ों का भ्रष्टाचार हो रहा है। ऐसे में गरीबी दूर होने के बजाय गरीबों के नाम पर आ रही राशि से अधिकारियों, कर्मचारियों एवं पंचायत प्रतिनिधियों की चांदी हो रही है। आश्चर्य की बात है कि इस योजना को लागू हुए छह साल से अधिक हो गए, पर अभी तक गांवों में इसके नियमों के बारे में लोगों तक जानकारी नहीं पहुंचाई जा सकी है। योजना के बारे में सभी ग्रामीणों को मालूम है, पर योजना का लाभ नियमानुसार कैसे लें, काम नहीं मिलने पर बेरोजगारी भत्ता कैसे लें, देर से भुगतान होने पर मुआवजा के लिए क्या करना होगा एवं आखिरकार इस योजना का सही मायने में उन्हें लाभ कैसे मिल पाएगा एवं यह उनके लिए क्यों उपयोगी है, जैसे कई सवालों का उत्तर ग्रामीणों के पास नहीं है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है कि योजना का क्रियान्वयन करने वाले नहीं चाहते कि लोगों को सही जानकारी हो। योजना में पारदर्शिता, जवाबदेही एवं सामाजिक निगरानी का बहुत ही ज्यादा उपेक्षा की जा रही है, जिसकी स्पष्ट वजह भ्रष्टाचार में लिप्तता है।
प्रदेश सरकार एक ओर इस बात को लेकर अपना पीठ खुद थपथपा रही है कि केंद्र सरकार ने मनरेगा को लेकर प्रमाण पत्र दिया है कि मध्यप्रदेश में योजना का क्रियान्वयन बेहतर तरीके से हो रहा है। इतना बेहतर देश के किसी अन्य राज्य में नहीं हो रहा है। सरकार यह भी दावा कर रही है कि शासन ने अधिकतम पारदर्शिता की कोशिश एवं पारिश्रमिक जल्द से जल्द दिलवाने की व्यवस्था की है। पर दूसरी ओर जमीनी स्तर पर देखा जाए, तो इसका स्पष्ट अभाव दिख रहा है। प्रदेश में मनरेगा को लेकर भ्रष्टाचार के कई मामलों में आईएएस अधिकारियों से लेकर नीचले स्तर के कर्मचारियों पर आरोप लगे हैं, पर कार्रवाई करने के नाम पर सिर्फ नीचले स्तर के कर्मचारियों को दबोचा जा रहा है, जबकि बिना उच्च अधिकारियों की मिली भगत के गांव स्तर के कर्मचारी या पंचायत प्रतिनिधि भ्रष्टाचार नहीं कर सकते। सरकार ने भी समय-समय पर कलेक्टर, जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी, जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी आदि पर शुरुआती तौर पर कार्रवाई की है, पर उसका कोई परिणाम नहीं निकल पाया एवं उनमें से अधिकांश वर्तमान में बेहतर जगह पर पदस्थ हैं। एक तरह से यह कहा जा सकता है कि गरीबों के नाम पर आने वाले पैसे पर जिन लोगों ने कुंडली मार लिया है, उन्हें कोई सजा नहीं मिल रही है एवं इसी का परिणाम है कि योजना से भ्रष्टाचार को खत्म नहीं किया जा सका है।
गांव में मजदूरी समय से नहीं मिल रही है, पर चूंकि काम की मांग मौखिक ज्यादा है, इसलिए ग्रामीण बेरोजगारी भत्ता की मांग नहीं कर पा रहे हैं। गरीबों को यह लग रहा है कि इस योजना में काम के इंतजार से बेहतर है कि अन्य काम की तलाश में पलायन कर लिया जाए। दूसरी सबसे बड़ी समस्या देर से मजदूरी का भुगतान है। इसके पीछे भले ही कुछ भी तर्क दिया जाए, पर देर से भुगतान पर मुआवजा देने से बचा जा रहा है एवं मजदूरी के लिए गरीब मजदूर लंबा इंतजार करने को विवश हो रहे हैं। इन स्थितियों को देखकर ऐसा लग रहा है कि सरकार की यह मंशा कतई नहीं है कि गरीब वर्ग के लोग गरीबी से बाहर आएं। गरीबी की परिभाषा चाहे कुछ भी हो जाए, पर लोगों को रोजगार एवं सामाजिक सुरक्षा दिए बिना सामाजिक एवं आर्थिक विकास में किसी परिवर्तन की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
Wednesday, April 4, 2012
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