Tuesday, April 22, 2008

श्‍वास, ब्‍लैक और तारे जमीं पर

पि‍छले तीन वर्षों में तीन अच्‍छी फि‍ल्‍में आईं - श्‍वास, ब्‍लैक और तारे जमीं पर। तीनों ही फि‍ल्‍मों में एक समानता थी, वह यह कि‍ इनकी वि‍षय-वस्‍तु बच्‍चों से जुड़ी है। फि‍ल्‍मांकन, छायांकन, संवाद, सीन, कहानी सभी मामले में ये फि‍ल्‍में सशक्‍त थी। बॉक्‍स ऑफि‍स पर श्‍वास थोडी पीछे रही पर ब्‍लैक और तारे जमीं पर ने तो अपने को सफल फि‍ल्‍मों में शुमार करवा लि‍या। श्‍वास को भले ही ब्‍लैक और तारे जमीं पर जि‍तनी सफलता नहीं मि‍ली हो पर उसे ऑस्‍कर की दौड़ में शामि‍ल होने का सौभाग्‍य जरूर मि‍ल गया। यद्यपि‍ उसे ऑस्‍कर तो नहीं मि‍ला पर वैश्‍ि‍वक ख्‍याति‍ जरूर मि‍ल गई।
तीनों फि‍ल्‍मों को समीक्षकों ने मुक्‍तकंठ से प्रशंसा की पर इनमें जो बुनि‍यादी अंतर है, उसकी ओर कि‍सी का ध्‍यान नहीं गया। श्‍वास में एक ऐसे बच्‍चे की कहानी को दर्शाया गया है, जो गांव के वातावरण से आता है और जि‍सकी आर्थिक स्‍ि‍थति‍ बहुत बेहतर नहीं है। इसमें दर्शाये गए संघर्ष की थीम दूसरी फि‍ल्‍मों की तरह नहीं है पर इसके बावजूद तुलना इसलि‍ए जायज है कि‍ तीनों फि‍ल्‍मों का दौर एक है। अन्‍य दो फि‍ल्‍मों (ब्‍लैक और तारे जमीं पर) के बच्‍चे उच्‍च आय वर्ग के परि‍वार के हैं और उनके लि‍ए एक शि‍क्षक रखना या बोर्डिंग स्‍कूल में अपने बच्‍चे को भेजना आसान है पर सामान्‍य परि‍वार या ग्रामीण परि‍वेश के बच्‍चों के जीवन में ऐसा परि‍वर्तन कि‍स तरह से आएगा, इसका हल ढूंढने में ये फि‍ल्‍में नाकाम है।
गांवों की शालाएं आज भी मूलभूत सुवि‍धाओं से वि‍हीन हैं, शि‍क्षक ढूंढे नहीं मि‍लते। इन हालात में ब्‍लैक और तारे जमीं पर के शि‍क्षकों जैसे शि‍क्षक मि‍लना उन बच्‍चों के लि‍ए तारे तोड़ कर लाने जैसा है।
इस बात पर शक नहीं कि‍ ब्‍लैक और तारे जमीं पर ने अपने समय के सशक्‍त सवालों को उठाया है पर परि‍वेश के अभाव में या यूं कहे कि‍ बाजार के दबाव में ये एक खास वर्ग का प्रति‍नि‍धि‍त्‍व करती नजर आती है।
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नये दौर में नया दौर

फि‍ल्म नया दौर में अभि‍नेता दि‍लीप कुमार ने अपने बेहतर अभि‍नय से पूरे देश का ध्‍यान अपनी ओर आकर्षित कि‍या था। वाकई उनका अभि‍नय इस फि‍ल्‍म में देखने लायक है। लेकि‍न बात यहीं खत्‍म होने के बजाय यहीं से शुरू होती है। यह फि‍ल्‍म उस दौर की है, जब देश के वि‍कास की गति‍ दी जा रही थी। फि‍ल्‍म को देखते ही पहली नजर में इस बात का अहसास हो जाता है कि‍ इस पर नेहरूयीन समाजवाद का मुलम्‍मा चढा हुआ है।
उस दौर की अधि‍कांश फि‍ल्‍में कुछ ऐसी ही हुआ करती थी पर हम बात न तो राज कपूर की करेंगे, न मनोज कुमार की और न ही दि‍लीप कुमार की। हम यहां सि‍र्फ फि‍ल्‍म की कहानी की ओर ध्‍यान दि‍लाना चाहते हैं। कहानी का मूल सार यह है कि‍ इसमें एक पूंजीपति‍ है, जो अपनी पूंजी का वि‍स्‍तार करना चाहता है और इसके लि‍ए वह नई-नई मशीनों को अपनी फैक्‍टरी में लगाता है और मजदूरों को नि‍काल देता है। गांव के अधि‍कांश लोग बेरोजगार हो जाते हैं। मालि‍क और मजदूर के बीच संघर्ष चलता है पर हि‍न्‍सक नहीं। फि‍ल्‍म का मुख्‍य केन्‍द्र मशीन और मानव के बीच के संघर्ष को दि‍खाना है। अंत में यह दिखाया जाता है कि‍ मानव की जीत होती है। संदेश यह है कि‍ मनुष्‍यों को हटाकर मशीनें न लगाई जाय बल्‍ि‍क मशीनों को सहयोगी की भूमि‍का में देखा जाय। वि‍कास के लि‍ए मशीनों को खारि‍ज करने के बजाय उसके बेहतर इस्‍तेमाल पर जोर दि‍या गया है।
आज के दौर में इस फि‍ल्‍म को युवा पीढी न तो पसंद करेगा और न ही इस फि‍ल्‍म को प्रमोट कि‍या जाएगा। 1990 के बाद की दुनि‍या में ऐसी फि‍ल्‍में रूकावट मानी जाएगी। वजह साफ है, वैश्‍ि‍वक पूंजी के खि‍लाफ है यह फि‍ल्‍म।
दुखद बात यह है कि‍ आज फि‍ल्‍मों को कला के ढांचे में बांध कर रखने की कोशि‍श की जा रही है। यह साजि‍श है। कला कि‍सके लि‍ए है क्‍या आम आदमी से या फि‍र समाज से कट कर कला जीवि‍त रह सकती है। यह वि‍चार करने की जरूरत है। साजि‍शन ऐसी फि‍ल्‍मों को समाज से बाहर कि‍या जा रहा है। नये दौर में नया दौर जैसी फि‍ल्‍मों की बहुत जरूरत है तमाम खामि‍यों के बावजूद। वैश्‍वीकरण की प्रक्रि‍या से लडने में ऐसी कला की जरूरत है जो अपनी तमाम व्‍यावसायि‍कता के बाद भी जनपक्षीय हों। http://technorati.com/tag/blogathonindia" rel="tag">blogathonindia, http://technorati.com/tag/blogathonindia1" rel="tag">blogathonindia1

Monday, April 21, 2008

सूखी धरती पर राजनीति की फसल

मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में भयावह सूखा पड़ा है पर लोगों को राहत नहीं मिल रहा है। इस क्षेत्र में न खाने को अन्न है और न ही पीने को पानी। विकल्प सिर्फ़ एक ही है - पलायन। लोगों का पलायन जारी है और उन्हें रोकने के लिए किए जा रहे तमाम उपाय नाकाम हैं। हाल ही में कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी ने इस क्षेत्र का दौरा कर राजनीति को गरमा दिया है। भाजपा, कांग्रेस और बसपा में राजनीतिक खिंचातानी शुरू हो गई है। लोग एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं पर लोगों को राहत नहीं मिल रहा है। पानी के लिए महिलाओं को आधा दिन बिताना पड़ता है, तब जाकर वे चार-छः घड़ा पानी जुटा पाती आती है। मवेशियों को लोग खुला छोड़ रहे है। कोई विकल्प नहीं है। लोग कर्ज में डूब गए हैं। बुजुर्ग भूखमरी के कगार पर हैं। पर किसी पार्टी में एकजुट होकर हल निकालने और राहत पहुँचाने का कोई प्रयास नहीं हो रहा है उल्टे सूखी धरती पर राजनीति की फसल काटने की तैयारी हो रही है, क्योंकि कुछ महीने बाद ही मध्यप्रदेश में विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं।

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