फिल्म नया दौर में अभिनेता दिलीप कुमार ने अपने बेहतर अभिनय से पूरे देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था। वाकई उनका अभिनय इस फिल्म में देखने लायक है। लेकिन बात यहीं खत्म होने के बजाय यहीं से शुरू होती है। यह फिल्म उस दौर की है, जब देश के विकास की गति दी जा रही थी। फिल्म को देखते ही पहली नजर में इस बात का अहसास हो जाता है कि इस पर नेहरूयीन समाजवाद का मुलम्मा चढा हुआ है।
उस दौर की अधिकांश फिल्में कुछ ऐसी ही हुआ करती थी पर हम बात न तो राज कपूर की करेंगे, न मनोज कुमार की और न ही दिलीप कुमार की। हम यहां सिर्फ फिल्म की कहानी की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं। कहानी का मूल सार यह है कि इसमें एक पूंजीपति है, जो अपनी पूंजी का विस्तार करना चाहता है और इसके लिए वह नई-नई मशीनों को अपनी फैक्टरी में लगाता है और मजदूरों को निकाल देता है। गांव के अधिकांश लोग बेरोजगार हो जाते हैं। मालिक और मजदूर के बीच संघर्ष चलता है पर हिन्सक नहीं। फिल्म का मुख्य केन्द्र मशीन और मानव के बीच के संघर्ष को दिखाना है। अंत में यह दिखाया जाता है कि मानव की जीत होती है। संदेश यह है कि मनुष्यों को हटाकर मशीनें न लगाई जाय बल्िक मशीनों को सहयोगी की भूमिका में देखा जाय। विकास के लिए मशीनों को खारिज करने के बजाय उसके बेहतर इस्तेमाल पर जोर दिया गया है।
आज के दौर में इस फिल्म को युवा पीढी न तो पसंद करेगा और न ही इस फिल्म को प्रमोट किया जाएगा। 1990 के बाद की दुनिया में ऐसी फिल्में रूकावट मानी जाएगी। वजह साफ है, वैश्िवक पूंजी के खिलाफ है यह फिल्म।
दुखद बात यह है कि आज फिल्मों को कला के ढांचे में बांध कर रखने की कोशिश की जा रही है। यह साजिश है। कला किसके लिए है क्या आम आदमी से या फिर समाज से कट कर कला जीवित रह सकती है। यह विचार करने की जरूरत है। साजिशन ऐसी फिल्मों को समाज से बाहर किया जा रहा है। नये दौर में नया दौर जैसी फिल्मों की बहुत जरूरत है तमाम खामियों के बावजूद। वैश्वीकरण की प्रक्रिया से लडने में ऐसी कला की जरूरत है जो अपनी तमाम व्यावसायिकता के बाद भी जनपक्षीय हों। http://technorati.com/tag/blogathonindia" rel="tag">blogathonindia, http://technorati.com/tag/blogathonindia1" rel="tag">blogathonindia1
Tuesday, April 22, 2008
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