वर्तमान मीडिया न केवल बाजार के दबावों को झेल रही है बल्कि सत्ता एवं अराजक तत्वों का भी दबाव उस पर बढ़ा है। यह एक बड़ी विडंबना है कि यदि मीडिया इन दबावों के बाद भी अपनी जनपक्षधरता के साथ चलना चाहे तो उसे अपने ही लोगों की आलोचना का शिकार होना पड़ता है। मीडिया बाजार के साथ कदम ताल करे और उसके बाद अपनी मजबूरी को जाहिर करे, इस बात को भी नजरअंदाज किया जा सकता है, पर यदि दूसरे अखबार या चैनल उसके जैसा चरित्र नहीं रखना चाहे तो उसे खारिज करने वालों में सबसे आगे उसके साथी माध्यम वाले ही होंगे। इसके पीछे जो सबसे बड़ा कारण नजर आ रहा है, वह यह है कि यदि कोई अखबार या चैनल यह संदेश देना चाहे कि पाठक या दर्शकों की पसंद को वे प्रस्तुत करते हैं, तो वह झूठा साबित होगा। यह मीडिया के साथ एक बड़ी समस्या है, न वह खुद जनपक्षीय रहना चाहती है और न ही अपने दूसरे बिरादराना माध्यमों को।
भोपाल से प्रकाशित दैनिक जागरण अखबार के बारे में कुछ दिन पूर्व एक विश्लेषक ने अपनी टिप्पणी कुछ इस तरह से दी - पिछले छह-सात दिनों में अंदर के पृष्ठों पर घुटन, संत्रास और पीड़ा झलक रही है, जो अपमार्केट होते जा रहे अखबारों में फिट नहीं बैठती।
यह महज एक टिप्पणी भर नहीं है बल्कि वर्तमान दौर की पत्रकारिता, मीडिया का रूख और बाजार के दबावों का विश्लेषण है, जिसके माध्यम से हम इस बात का आकलन कर सकते हैं कि मीडिया किसके पक्ष में खड़ा है। सामान्य रूप से देखने में यह लगता है कि अखबार के लिए यह आलोचना है, पर यदि इसे आलोचना मान लिया जाए तो भी यह एक नई बहस को जन्म देता है कि आखिर क्या कारण रहा है कि भोपाल जागरण को अपमार्केटिंग के इस दौर में डाउनमार्केटिंग की दिशा में जाना ज्यादा बेहतर लग रहा है।
यह बिल्कुल सही है कि पिछले कुछ दिनों से जागरण का मिजाज बदला हुआ नजर आ रहा है, जिस पर आम जन की निगाहें तो जा ही रही है, साथ ही साथ अन्य अखबारों में भी चर्चाओं का दौर चल रहा है। इतना ही नहीं, अखबार के भीतर भी बहस का दौर जारी है।
दबाव समूहों को नजरअंदाज करते हुए संपादक का यह निर्णय काबिल-ए-तारिफ है कि सामाजिक प्रतिबद्वता से विचलन नहीं होगा और अखबार का रूख आंतरिक एवं बाह्य दबावों के बीच मानवीय रहेगा। संपादक ने सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्वता जाहिर करते हुए दो बार अपील भी प्रकाशित की और प्रदेश के बौद्विक तबका से इस बात का आग्रह किया कि वे अपने लेखन से वंचित तबके की आवाज लाएं, जागरण उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनेगा।
सवाल यह है कि क्या अखबार का यह बदलाव यूं ही हो गया है या फिर इसके पीछे कोई प्रक्रिया रही है। नि:संदेह वर्तमान दौर की परिस्थितियां अखबार में ऐसे बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। समाज में जिस तरह से अधिकारों को लेकर सजगता बढ़ी है और इसके लिए आमजन लगातार संघर्ष कर रहे हैं, उस परिस्थिति में अखबार द्वारा उनका नजरअंदाज किया जाना मुश्किल लगता है। यदि जनमुद्दों से अखबारों की दूरी बरकरार रही तो इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि पाठक अखबार का विरोध करना शुरू कर दें। सबसे अहम पहलु विश्वसनीयता और उत्तरदायित्व को लेकर है। अपमार्केट के दौर में जो खबरें परोसी जा रही हैं, उन खबरों क्या विश्वसनीयता होगी, क्या लोगों में अब इस बात की चर्चा नहीं होने लगी है कि मीडिया का विश्वास करना कठिन है। हिन्दी अखबारों के सामने एक अहम सवाल यह भी तो है कि उनके पाठक वर्ग में भी बदलाव आ रहा है और जो नया वर्ग है वह किसी न किसी रूप में जन सरोकारों से वास्ता रखता है।
दैनिक जागरण ने जो राह अख्तियार किया है, उस पर वह लम्बे समय से टिका हुआ है। किसी टे्रंड को बदलने के लिए संयम की जरूरत होती है। संभव है कि इसके एवज में जागरण को कई लोगों का आलोचना भी झेलना पड़े, पर इसका अर्थ यह कतई नहीं लगाना चाहिए कि जो बदलाव किया गया है, वह सही दिशा में नहीं जा रहा है या फिर अपमार्केट के दौर में वह फिट नहीं है बल्कि इसकी ज्यादा संभावना है कि अखबारों के अपमार्केट में जाने की राह भी यही से निकलेगी और संभवना से इंकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले समय में अन्य अखबार भी इसी राह पर चलेंगे। हां, इस बदलाव पर कायम रहने के लिए दृढ़निश्चयी होना जरूरी है और इस प्रक्रिया को लंबे समय तक चलाये रखना भी जरूरी है।
बाजार के पैरोकार प्रचारित कर रहे हैं, विकास के मुद्दों पर बात करने की क्या जरूरत है, विकास की खबरों को पढ़ता कौन है?
पर भोपाल जागरण के इस उत्तरदायित्वबोध के कारण उसकी विश्वसनीयता में भी इजाफा हुआ है। समाज के वंचित और बहिष्कृत समुदाय के मुद्दे को अखबार में स्थान देते हुए उनकी आवाज को मुखरता देते हुए इसने सही मायने में मानवीयता को महत्व दिया है, जिसके गुम हो जाने की चिंता आज हर किसी को सता रही है।
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Wednesday, April 23, 2008
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