Saturday, December 22, 2007
समकालीन विडंबना
समकालीन विडंबना
मुझे कुछ करना चाहिए
सिवाए सोचने के
मैं कुछ नहीं करता
Friday, November 16, 2007
खूबसूरत लड़कियां
नहीं मिलती आसानी से
होती हैं कई प्रतियोगिताएं
मिस सिटी से मिस यूनिवर्स तक
अब मिसेज भी होने लगी
इसके बावजूद नहीं मिलती
उनके चेहरे पर लिपे होते हैं
प्रायोजकों के लेप
हर अंग पर लिपटी होती है
आयोजकों की चिंदियां
फिर भी नहीं होती वे खूबसूरत
उनके चेहरे पर चमकता है बाजार
अंतत: खारिज हो जाती हैं अगले साल
खूबसूरत लड़कियां नहीं मिलती प्रतियोगिताओं से
खूबसूरत लड़कियां जूझती हैं जीवन से
उनके चेहरे पर चमकती हैं पसीने की बूंदे
उनके दिल में होती हैं निश्च्छलता
नहीं जानती वे बाजार भाव
वे बिकाऊ नहीं होती
Wednesday, November 7, 2007
भोपाल भी आ गया मॉल की चपेट में
पिछ्ले दिनों जब रिलायंस फ्रेश का भोपाल में विरोध हुआ था, तब लगा था कि की जनता विकास की अंधी दौड़ में शामिल नहीं होना चाहती, जिसमें समाज के वंचित तबके को जगह ही नहीं मिले और वह समाज से पूरी तरह बहिष्कृत हो जाए। क्योंकि शहरी विस्थापन इस पूंजीवादी व्यवस्था का एक क्रूर रूप है, जिसका एक महत्वपूर्ण घटक बाजारवाद भी है। इन परिस्थितियों में भोपाल को अपनी पुरानी पहचान को बनाये रखने के लिए यह जरूरी था कि उन शक्तियों का विरोध किया जाय, जो पहचान पर हमला करती हो। भोपाल राजधानी होते हुए भी व्यावसायिक गतिविधियों का केन्द्र नहीं रहा है। भोपाल के लोगों को इस बात का इल्म ही नहीं था कि सिर्फ नहीं चाहने भर से ही बाजार का विरोध नहीं हो सकता, बल्कि विरोध के तेवर साफ-साफ नजर भी आने चाहिए। पिछले कुछ समय से बड़ी-बड़ी कंपनियों के आउटलेट भोपाल में खुलते जा रहे थे, जो बाजार को हावी हो जाने के लिए रास्ता तैयार कर रहे थे।
आखिरकार भोपाल अपने को बाजार के हवाले कर ही दिया और यहां एक बड़ी कंपनी का मॉल खुल गया। मॉल का खुलना उतना आश्चर्यजनक नहीं था, जितना उसको मिले रिस्पांस को देखना आश्चर्यजनक था। एक साथ दर्जनों पेयमेण्ट काउण्टर पर दर्जनों की लाइन (बिलिंग के लिए)।
भोपाल में प्रवेश कर चुकी यह मॉल संस्कृति का परिणाम क्या होगा, यह तो बाद की बात है, पर मंझोले एवं छोटे दुकानदारों के लिए मुश्किलों का दौर शुरू तो हो ही गया।
सबसे दु:खद बात तो यह है कि अब मैं किसी से यह नहीं कह सकता कि भोपाल में मॉल नहीं है और यह शहर अभी भी अपने निम्न एवं मध्य वर्गीय चरित्र को जी रहा है।
Tuesday, November 6, 2007
वंचितों पर बाजार का दबाव
बाज़ार के अध्ययर्नकत्ताओं का कहना है कि बड़े शहरों में लोगों में निवेश के प्रति ज्यादा रूझान हुआ है और छोटे शहरों में उपभोक्ता वस्तुओं के प्रति लोगों का रूझान बढ़ा है। यानी यह साफ दिख रहा है कि निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग में उपभोक्ता वस्तुओं के प्रति रूझान बढ़ा है (बढ़ाया जा रहा है)। यद्यपि उदारवाद के पैरोकारों का कहना है कि लोगों में खरीदने की क्षमता (परचेजिंग कैपिसिटी) में इजाफा हुआ है क्योंकि लोगों के वेतन और भत्तों में भारी बढ़ोतरी हुई है। ये वही लोग हैं जो इंडिया शाइनिंग की बात करते थे। पर वे समाज के स्याह पक्ष को भूल जाते हैं, जिसमें समाज की बड़ी आबादी जीने के लिए अभिशप्त है।
बाजार नए जीवन मूल्य गढ़ रहा है। बाजार ही तय कर रहा है कि लोग क्या पहने, क्या खाये, क्या पीये या यूं कहें कि कैसे जिएं? बाजार लोगों को सोचने का मौका नहीं देना चाहता। एक से बढ़ कर एक लुभावने उपहारों एवं छूट के बीच यह स्लोगन कि यह मौका बस आज के लिए है और यदि चूक गए तो यह मानो कि आपने जीवन के एक बहुमूल्य अवसर को खो दिया। बाजार ने एक ऐसी प्रतियोगिता के बीच लोगों को लाकर खड़ा कर दिया है, जिसकी होड़ में शामिल होकर पूरा का पूरा तबका गरीबी के दुश्चक्र में शामिल हो रहा है। यह प्रतियोगिता सामाजिक प्रतिष्ठा को लेकर है। यदि आपने बड़ी खरीददारी नहीं की या फिर आपके पास कुछ ब्राण्ड के खास आइटम नहीं है, तो इसे समाजिक प्रतिष्ठा का प्रश्न बना दिया जाता है, यानी भले ही ऋण लेकर खरीददारी करें पर खरीददारी जरूर करें। निम्न वर्ग साहूकर से ऋण ले या फिर बैंकों से, किसी का परिणाम जीवन के सुकून को खत्म करने वाला ही है।
बाजार की चपेट में आकर वंचित समुदाय का जीवन कैसे दुरूह हो जाता है, इसे हाल की घटनाओं से अच्छी तरह समझा जा सकता है. नर्मदा बांध के विस्थापितों को जब मुआवजा राशि मिली, तब प्रभावित जिलों में दो-पहिया वाहन कंपनियों ने अनेक लुभावने स्लोगन और छूट के मार्फत बड़ी संख्या में वाहनों को बेचा। आलम यह रहा कि जिन्हें वाहन चलाना नहीं आता था, उन्होंने भी वाहन खरीदा और दो पहिया वाहनों के लिए ड्राइवरों को रखा। परिणाम यह हुआ कि मुआवजे में मिली राशि उपभोग की भेंट चढ़ गई और वे दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं।
वर्तमान में जब लोगों के जीवन से मूलभूत सुविधाएं दूर होती जा रही है और शिक्षा एवं स्वास्थ्य महंगी होती जा रही है, तब वंचितों पर बढ़ता बाजार का दबाव उनके लिए घातक है। बाजार के दबाव में बनी परिस्थितियों के बीच उनके द्वारा खरीदे गए छोटी-मोटी उपभोक्ता वस्तुओं के कारण मध्य वर्ग यह मानने को कतई तैयार नहीं कि वे गरीब हैं और त्रासदी यह है कि सरकार ने भी अन्य कारणों के साथ-साथ इस कारण से भी उन्हें गरीबी रेखा से ऊपर धकिया दिया है और उन्हें विभिन्न सरकारी योजनाओं से वंचित कर दिया है। इस तरह से वे सामाजिक एवं आर्थिक दोनों तरह से बहिष्कृत हो रहे हैं।
मध्यप्रदेश में विकास की चुनौतियां
प्रदेश को विकसित बनाने के लिए यह जरूरी है कि शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य बुनियादी सुविधाओं को सहजता से आम लोगों तक पहुंचाने के प्रयास किए जाएं। प्रदेश में सामाजिक विकास की स्थिति न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि दूसरे राज्यों की तुलना में भी प्रदेश की स्थिति खराब है। सामाजिक विकास की स्थिति में यदि प्रदेश को देखा जाए, तो यहां अभी भी भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, लैंगिक भेदभाव, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव व्याप्त हैं।
प्रदेश में आज भी 44.77 लाख परिवार गरीबी की रेखा के नीचे और 15.81 लाख परिवार अति गरीबी के दायरे में आते हैं। प्रदेश के किसान कर्ज में डूबे हुए हैं। खेती में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आमंत्रित कर किसानों एवं छोटे व्यापारियों की स्थिति दयनीय बनाई जा रही है। सरकारी दावों के अनुसार शालाओं से बाहर के बच्चों की संख्या एक लाख से भी कम है पर प्रदेश में बाल मजदूरों की संख्या 10 लाख से भी अधिक है। दलित एवं आदिवासी समुदाय के बच्चे, जिनमें लड़कियों की संख्या ज्यादा है, साथ ही बड़े शहरों के झुग्गी-बस्ती में रहने वाले बच्चों का सकल नामांकन अनुपात कम है। प्रदेश में प्राथमिक स्तर बालिकाओं का सकल नामांकन अनुपात 0.88 प्रतिशत है, प्राथमिक, उच्च प्राथमिक स्तर पर शाला त्यागी बच्चों का दर 20 प्रतिशत, जिसमें लड़कियों का प्रतिशत ज्यादा है, यानी प्रदेश में शिक्षा में लैंगिक भेदभाव अभी भी खत्म करना दूर की बात है। 6 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या वाले मध्यप्रदेश में लगभग 20 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासियों की हैं, आदिवासी बच्चों में कुपोषण की स्थिति ज्यादा भयावह है। प्रदेश में तीन वर्ष तक के कुपोषित बच्चों की संख्या 1998-99 में 53.5 प्रतिशत की तुलना में 2005-06 में 60.3 प्रतिशत हो गई है। मध्यप्रदेश में पिछले दशकों की तुलना में मातृत्व मृत्यु दर में कमी देखी जा रही है पर इसके बावजूद प्रदेश में अभी भी प्रति वर्ष 7700 मातृत्व मृत्यु हो रही है। 10 वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश में मातृत्व मृत्यु का औसत 498 प्रति लाख था, जो कि वर्तमान में 379 प्रति लाख के स्तर तक ही आ पाया है। अप्रैल 2007 तक मध्यप्रदेश में 2201 एच.आई.वी. पॉजीटिव केस पाए गए हैं, जिनमें से 86 प्रतिशत 11 से 45 वर्ष के व्यक्तियों में पाया गया है। 1998 से लगातार प्रतिवर्ष औसतन 200 एच.आई.वी. पॉजीटिव केस बढ़ रहे हैं। प्रदेश में मलेरिया की स्थिति को देखा जाए तो देश में होने वाले तमाम मलेरिया प्रकरणों में से 24 प्रतिशत प्रकरणों का योगदान मध्यप्रदेश की तरफ से होता है। प्लास्मोडियम फाल्सीपेरम (एक तरह का सबसे गंभीर मलेरिया) के 40 फीसदी प्रकरण मध्यप्रदेश में दर्ज होते हैं। मलेरिया के कारण होने वाली कुल मौतों में से केवल मध्यप्रदेश में ही 20 प्रतिशत होती हैं। मध्यप्रदेश में टी.बी. का प्रकोप भी खतरनाक स्तर पर है। मीडियम टर्म हेल्थ सेक्टर स्ट्रेटजी- 2006 के अनुसार 2005 में 85 व्यक्ति प्रति लाख टी.बी. से ग्रसित थे। स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2006 में 111 मरीज प्रति लाख चिन्हित किए गए। वर्ष 2007 में जनवरी से मार्च तक की स्थिति में 104 प्रति लाख टी.बी. के मरीज चिन्हित किए गए हैं।
राज्य की औद्योगिक नीतियों के तहत जिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को प्रदेश में आमंत्रित किया गया है, उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों का बंटाधार कर दिया है। नदियों किनारे स्थित कारखाने अपने अवषिष्टों को यूं ही फेंक रहे हैं, जिससे आस-पास के खेतों की उवर्रता खत्म हो रही है और भू-जल के साथ-साथ नदियां भी प्रदूषित हो रही है। बहुराष्ट्रीय कम्परियों को भूजल दोहन के असीमित अधिकार दिए जा रहे हैं और पानी का निजीकरण किया जा रहा है। प्रदेश में पानी को लेकर अक्सर हिंसक झड़प की खबर आती है। भूजल स्तर गिर जाने से, पानी में कारखानों के अवषिष्ट पदार्थों एवं रसायनों के घुल जाने से भूजल में नाइट्रेट बढ़ रहा है। मध्यप्रदेश में फ्लोरोसिस रोग से पीड़ितों की संख्या बढ़ रही है। राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 2020 तक झुग्गी बस्ती में रहने वाली कुल जनसंख्या में से कम से कम 10 करोड़ लोगों के जीवन स्तर में सुधार करने का लक्ष्य है। पर ग्रामीणों की आजीविका खत्म करना, जंगल के आश्रितों को विस्थापित करना, खेती में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आमंत्रित कर किसानों एवं खेत मजदूरों को बेदखल करने और उसके बाद शहरों पर बढ़ते दबाव एवं अवैध कॉलोनियों के विकसित होने से प्रदेश की स्थिति और खराब हुई है।
यदि प्रदेश में 51 सालों के बाद भी बुनियादी सुविधाओं का लाभ निचले स्तर तक नहीं पहुंच पाया है, तो इस पर व्यापक बहस चलाए जाने की जरूरत है, ताकि सही मायने में विकास का लाभ वंचित समुदाय वंचित भी ले सके।
Saturday, October 13, 2007
मुद्दों की पत्रकारिता
पिछले 15 वर्षों में मीडिया के स्वरूप में बहुत तेज बदलाव देखने को मिला है। सूचना क्रांति एवं तकनीकी विस्तार के चलते मीडिया की पहुंच व्यापक हुई है। इसके समानांतर भूमंडलीकरण, उदारीकरण एवं बाजारीकरण की प्रक्रिया भी तेज हुई है, जिससे मीडिया अछूता नहीं है। नए-नए चैनल खुल रहे हैं, नए-नए अखबार एवं पत्रिकाएं निकाली जा रही है और उनके स्थानीय एवं भाषायी संस्करणों में भी विस्तार हो रहा है। मीडिया के इस विस्तार के साथ चिंतनीय पहलू यह जुड़ा गया है कि यह सामाजिक सरोकारों से दूर होता जा रहा है। मीडिया के इस बदले रूख से उन पत्रकारों की चिंता बढ़ती जा रही है, जो यह मानते हैं कि मीडिया के मूल में सामाजिक सरोकार होना चाहिए।
भारत में मीडिया की भूमिका विकास एवं सामाजिक मुद्दों से अलग हटकर हो ही नहीं सकती पर यहां मीडिया इसके विपरीत भूमिका में आ चुका है। मीडिया की प्राथमिकताओं में अब शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, विस्थापन जैसे मुद्दे रह ही नहीं गए हैं। उत्पादक, उत्पाद और उपभोक्ता के इस दौर में खबरों को भी उत्पाद बना दिया गया है, यानी जो बिक सकेगा, वही खबर है। दुर्भाग्य की बात यह है कि बिकाऊ खबरें भी इतनी सड़ी हुई है कि उसका वास्तविक खरीददार कोई है भी या नहीं, पता करने की कोशिश नहीं की जा रही है। बिना किसी विकल्प के उन तथाकथित बिकाऊ खबरों को खरीदने (देखने, सुनने, पढ़ने) के लिए लक्ष्य समूह को मजबूर किया जा रहा ह। खबरों के उत्पादकों के पास इस बात का भी तर्क है कि यदि उनकी ''बिकाऊ'' खबरों में दम नहीं होता, तो चैनलों की टी.आर.पी. एवं अखबारों का रीडरशिप कैसे बढ़ता?
इस बात में कोई दम नहीं है कि मीडिया का यह बदला हुआ स्वरूप ही लोगों को स्वीकार है, क्योंकि विकल्पों को खत्म करके पाठकों, दर्शकों एवं श्रोताओं को ऐसी खबरों को पढ़ने, देखने एवं सुनने के लिए बाध्य किया जा रहा है। उन्हें सामाजिक मुद्दों से दूर किया जा रहा है।
ऐसी ही परिस्थितियों के बीच मीडिया में विकास के मुद्दों को बढ़ावा देने का कार्य कर रही भोपाल की एक संस्था विकास संवाद ने कुछ दिन पूर्व चित्रकूट में राष्ट्रीय मीडिया संवाद का आयोजन कर नई उम्मीदें जगाई हैं। संभवत: देश में यह पहला आयोजन है, जिसमें 7 राज्यों – मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, झारखण्ड, बिहार, दिल्ली, राजस्थान, पंजाब के पत्रकारों ने भाग लिया। संवाद में संपादक, वरिष्ठ पत्रकार, स्वतंत्र पत्रकार, वरिष्ठ उप संपादक, उप संपादक, संवाददाता, जिला संवाददाता, पत्रकारिता के प्राध्यापक एवं पत्रकारिता के विद्यार्थियों ने शिरकत की।
संवाद का स्वरूप अनौपचारिक था, जिसमें प्रतिभागियों को अपने अनुभवों एवं अतीत को खंगालने का मौका मिला। संवाद की शुरुआत पत्रकारों ने अपने सफर के साथ ही शुरू कर दी थी। आयोजन में विभिन्न संस्थानों के पत्रकार काम के दबाव के बाहर आकर एक दूसरे से मिले। कई पत्रकार पिछले 4-5 वर्षों से फोन पर चर्चा करते रहे थे, पर आपस में कभी मिले ही नहीं थे, कई पत्रकार वर्षों बाद आमने-सामने हुए। सभी ने अपनी यादों के गर्द को साफ करना शुरू कर दिया - किस मकसद के लिए है पत्रकारिता, किस ओर जा रही है पत्रकारिता, किन-किन दबावों को झेल रही है पत्रकारिता, कौन कहां क्या कर रहा है, के साथ-साथ हास-परिहास।
राष्ट्रीय मीडिया संवाद को कई सत्रों में विभाजित किया गया था, पर ऐसा नहीं था कि उसमें तब्दीली न की जा सके। पूरी स्वतंत्रता थी कि सामूहिक रूप से तय कर चर्चा को आगे बढ़ाया जाये और ऐसा हुआ भी. रात को सभी पत्रकारों ने अपने जीवन के दूसरे पक्ष को टटोला, जिस फन को भूल गए थे उसे याद किया, पद और शक्ति का चोला एक ओर रखकर आयोजन स्थल को कम्यून बना दिया, सभी बराबर और सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
राष्ट्रीय मीडिया संवाद में कुई गंभीर चर्चाएं हुई - क्या है विकास, एकांगी विकास, समग्र विकास, शहरी एवं ग्रामीण विकास में अंतर, विस्थापन, स्वास्थ्य, बच्चों के अधिकार, विकास में महिलाओं की स्थिति, समानता एवं उसके विभिन्न पहलू, वैकल्पिक मीडिया, मुख्यधारा के मीडिया में स्पेस की समस्या का समाधान, अपनी भूमिकाएं आदि कई मुद्दों पर चर्चा की गई। अति व्यस्त माने जाने वाले पत्रकारों ने इन चर्चाओं के लिए दो दिन को नाकाफी माना और लगातार ऐसे संवाद के आयोजित करने एवं इसको विस्तार देने पर बल दिया। संवाद में दैनिक जागरण, प्रभात खबर, जोहार सहिया, अमर उजाला, पी.एन.एन. हिन्दी, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, नवभारत, सप्रेस, न्युज टुडे, राज एक्सप्रेस, माय न्यूज डॉट इन, हिन्दुस्तान टाईम्स सहित कई अन्य संस्थानों के पत्रकार शामिल हुए। माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय (भोपाल), दिल्ली वि.वि. एवं चित्रकूट ग्रामोदय वि.वि. के पत्रकारिता विभाग के प्राध्यापक एवं विद्यार्थी भी संवाद में शामिल हुए।
विकास संवाद ने पिछले वर्ष पचमढ़ी में एक राज्य स्तरीय मीडिया संवाद की शुरुआत छोटे समूह के साथ की थी। उसके बाद मध्यप्रदेश के विभिन्न प्रमुख शहरों के उन पत्रकारों को एक मंच पर लाने की कोशिश की गई जो सामाजिक सरोकार एवं विकास पत्रकारिता के प्रति गंभीर हैं। कई क्षेत्रीय मीडिया संवाद के आयोजन भी किए गए। महज एक वर्ष में सैकड़ों पत्रकार मीडिया संवाद से जुड़ चुके हैं और विकास के विभिन्न मुद्दों पर विश्लेषणात्मक और तथ्यपरक समाचारों एवं लेखों का प्रकाशन एवं प्रसारण कर रहे हैं। विकास संवाद द्वारा विभिन्न मुद्दों पर जारी सरकारी एवं गैर सरकारी रिपोर्ट्स, सर्वे, आंकड़ों आदि का विश्लेषण कर समय-समय पर पत्रकारों को उपलब्ध कराया जाता है।
राष्ट्रीय मीडिया संवाद में एक बात बहुत ही स्पष्ट रूप से उभरकर आई कि बाजार एवं व्यावसायिक दबावों के बीच सामाजिक सरोकार से जुड़ी पत्रकारिता हो सकती है और नई चुनौतियों पर चर्चा एवं नई राह तलाशने के लिए ऐसे आयोजन लगातार किए जाने की जरूरत है।