मध्यप्रदेश अब 51 साल का हो गया, एक विकसित राज्य होने के लिए इतना समय काफी होता है पर प्रदेश में विकास की राह में कई चुनौतियां हैं। बुनियादी सुविधाओं शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सड़क में सुधार लाये बिना प्रदेश को विकसित राज्यों की कतार में खड़ा नहीं किया जा सकता। शिक्षा या स्वास्थ्य के ढांचे में सुधार लाने की बात हो या फिर अन्य समस्याओं के समाधान की बात हो, यहां संसाधनों की कमी नहीं है बल्कि इन समस्याओं की जड़ में राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव, बेहतर प्रबंधन का अभाव, मूलभूत सेवाओं के निचले ढांचे में सुधार का अभाव है वर्तमान में प्रदेश विकास के उड़नखटोले पर सवार है पर यह साफ नजर आ रहा है कि जमीनी स्तर पर मूलभूत सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए विकल्पों पर विचार नहीं किया जा रहा है। यद्यपि पिछले दशकों की तुलना में सुधार देखने को मिल रहा है पर इसके बावजूद इसे संतोषजनक नहीं माना जा सकता। आर्थिक विकास में आगे निकलने के लिए प्रदेश कई कवायद कर रहा है पर यह आर्थिक विकास सामाजिक विकास को गति दिए बिना असंतुलित ही होगा और आम लोगों की पहुंच से बुनियादी सुविधाएं अधिक दूर हो जाएंगी।
प्रदेश को विकसित बनाने के लिए यह जरूरी है कि शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य बुनियादी सुविधाओं को सहजता से आम लोगों तक पहुंचाने के प्रयास किए जाएं। प्रदेश में सामाजिक विकास की स्थिति न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि दूसरे राज्यों की तुलना में भी प्रदेश की स्थिति खराब है। सामाजिक विकास की स्थिति में यदि प्रदेश को देखा जाए, तो यहां अभी भी भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, लैंगिक भेदभाव, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव व्याप्त हैं।
प्रदेश में आज भी 44.77 लाख परिवार गरीबी की रेखा के नीचे और 15.81 लाख परिवार अति गरीबी के दायरे में आते हैं। प्रदेश के किसान कर्ज में डूबे हुए हैं। खेती में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आमंत्रित कर किसानों एवं छोटे व्यापारियों की स्थिति दयनीय बनाई जा रही है। सरकारी दावों के अनुसार शालाओं से बाहर के बच्चों की संख्या एक लाख से भी कम है पर प्रदेश में बाल मजदूरों की संख्या 10 लाख से भी अधिक है। दलित एवं आदिवासी समुदाय के बच्चे, जिनमें लड़कियों की संख्या ज्यादा है, साथ ही बड़े शहरों के झुग्गी-बस्ती में रहने वाले बच्चों का सकल नामांकन अनुपात कम है। प्रदेश में प्राथमिक स्तर बालिकाओं का सकल नामांकन अनुपात 0.88 प्रतिशत है, प्राथमिक, उच्च प्राथमिक स्तर पर शाला त्यागी बच्चों का दर 20 प्रतिशत, जिसमें लड़कियों का प्रतिशत ज्यादा है, यानी प्रदेश में शिक्षा में लैंगिक भेदभाव अभी भी खत्म करना दूर की बात है। 6 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या वाले मध्यप्रदेश में लगभग 20 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासियों की हैं, आदिवासी बच्चों में कुपोषण की स्थिति ज्यादा भयावह है। प्रदेश में तीन वर्ष तक के कुपोषित बच्चों की संख्या 1998-99 में 53.5 प्रतिशत की तुलना में 2005-06 में 60.3 प्रतिशत हो गई है। मध्यप्रदेश में पिछले दशकों की तुलना में मातृत्व मृत्यु दर में कमी देखी जा रही है पर इसके बावजूद प्रदेश में अभी भी प्रति वर्ष 7700 मातृत्व मृत्यु हो रही है। 10 वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश में मातृत्व मृत्यु का औसत 498 प्रति लाख था, जो कि वर्तमान में 379 प्रति लाख के स्तर तक ही आ पाया है। अप्रैल 2007 तक मध्यप्रदेश में 2201 एच.आई.वी. पॉजीटिव केस पाए गए हैं, जिनमें से 86 प्रतिशत 11 से 45 वर्ष के व्यक्तियों में पाया गया है। 1998 से लगातार प्रतिवर्ष औसतन 200 एच.आई.वी. पॉजीटिव केस बढ़ रहे हैं। प्रदेश में मलेरिया की स्थिति को देखा जाए तो देश में होने वाले तमाम मलेरिया प्रकरणों में से 24 प्रतिशत प्रकरणों का योगदान मध्यप्रदेश की तरफ से होता है। प्लास्मोडियम फाल्सीपेरम (एक तरह का सबसे गंभीर मलेरिया) के 40 फीसदी प्रकरण मध्यप्रदेश में दर्ज होते हैं। मलेरिया के कारण होने वाली कुल मौतों में से केवल मध्यप्रदेश में ही 20 प्रतिशत होती हैं। मध्यप्रदेश में टी.बी. का प्रकोप भी खतरनाक स्तर पर है। मीडियम टर्म हेल्थ सेक्टर स्ट्रेटजी- 2006 के अनुसार 2005 में 85 व्यक्ति प्रति लाख टी.बी. से ग्रसित थे। स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2006 में 111 मरीज प्रति लाख चिन्हित किए गए। वर्ष 2007 में जनवरी से मार्च तक की स्थिति में 104 प्रति लाख टी.बी. के मरीज चिन्हित किए गए हैं।
राज्य की औद्योगिक नीतियों के तहत जिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को प्रदेश में आमंत्रित किया गया है, उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों का बंटाधार कर दिया है। नदियों किनारे स्थित कारखाने अपने अवषिष्टों को यूं ही फेंक रहे हैं, जिससे आस-पास के खेतों की उवर्रता खत्म हो रही है और भू-जल के साथ-साथ नदियां भी प्रदूषित हो रही है। बहुराष्ट्रीय कम्परियों को भूजल दोहन के असीमित अधिकार दिए जा रहे हैं और पानी का निजीकरण किया जा रहा है। प्रदेश में पानी को लेकर अक्सर हिंसक झड़प की खबर आती है। भूजल स्तर गिर जाने से, पानी में कारखानों के अवषिष्ट पदार्थों एवं रसायनों के घुल जाने से भूजल में नाइट्रेट बढ़ रहा है। मध्यप्रदेश में फ्लोरोसिस रोग से पीड़ितों की संख्या बढ़ रही है। राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 2020 तक झुग्गी बस्ती में रहने वाली कुल जनसंख्या में से कम से कम 10 करोड़ लोगों के जीवन स्तर में सुधार करने का लक्ष्य है। पर ग्रामीणों की आजीविका खत्म करना, जंगल के आश्रितों को विस्थापित करना, खेती में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आमंत्रित कर किसानों एवं खेत मजदूरों को बेदखल करने और उसके बाद शहरों पर बढ़ते दबाव एवं अवैध कॉलोनियों के विकसित होने से प्रदेश की स्थिति और खराब हुई है।
यदि प्रदेश में 51 सालों के बाद भी बुनियादी सुविधाओं का लाभ निचले स्तर तक नहीं पहुंच पाया है, तो इस पर व्यापक बहस चलाए जाने की जरूरत है, ताकि सही मायने में विकास का लाभ वंचित समुदाय वंचित भी ले सके।
प्रदेश को विकसित बनाने के लिए यह जरूरी है कि शिक्षा, स्वास्थ्य एवं अन्य बुनियादी सुविधाओं को सहजता से आम लोगों तक पहुंचाने के प्रयास किए जाएं। प्रदेश में सामाजिक विकास की स्थिति न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि दूसरे राज्यों की तुलना में भी प्रदेश की स्थिति खराब है। सामाजिक विकास की स्थिति में यदि प्रदेश को देखा जाए, तो यहां अभी भी भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, लैंगिक भेदभाव, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव व्याप्त हैं।
प्रदेश में आज भी 44.77 लाख परिवार गरीबी की रेखा के नीचे और 15.81 लाख परिवार अति गरीबी के दायरे में आते हैं। प्रदेश के किसान कर्ज में डूबे हुए हैं। खेती में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आमंत्रित कर किसानों एवं छोटे व्यापारियों की स्थिति दयनीय बनाई जा रही है। सरकारी दावों के अनुसार शालाओं से बाहर के बच्चों की संख्या एक लाख से भी कम है पर प्रदेश में बाल मजदूरों की संख्या 10 लाख से भी अधिक है। दलित एवं आदिवासी समुदाय के बच्चे, जिनमें लड़कियों की संख्या ज्यादा है, साथ ही बड़े शहरों के झुग्गी-बस्ती में रहने वाले बच्चों का सकल नामांकन अनुपात कम है। प्रदेश में प्राथमिक स्तर बालिकाओं का सकल नामांकन अनुपात 0.88 प्रतिशत है, प्राथमिक, उच्च प्राथमिक स्तर पर शाला त्यागी बच्चों का दर 20 प्रतिशत, जिसमें लड़कियों का प्रतिशत ज्यादा है, यानी प्रदेश में शिक्षा में लैंगिक भेदभाव अभी भी खत्म करना दूर की बात है। 6 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या वाले मध्यप्रदेश में लगभग 20 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासियों की हैं, आदिवासी बच्चों में कुपोषण की स्थिति ज्यादा भयावह है। प्रदेश में तीन वर्ष तक के कुपोषित बच्चों की संख्या 1998-99 में 53.5 प्रतिशत की तुलना में 2005-06 में 60.3 प्रतिशत हो गई है। मध्यप्रदेश में पिछले दशकों की तुलना में मातृत्व मृत्यु दर में कमी देखी जा रही है पर इसके बावजूद प्रदेश में अभी भी प्रति वर्ष 7700 मातृत्व मृत्यु हो रही है। 10 वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश में मातृत्व मृत्यु का औसत 498 प्रति लाख था, जो कि वर्तमान में 379 प्रति लाख के स्तर तक ही आ पाया है। अप्रैल 2007 तक मध्यप्रदेश में 2201 एच.आई.वी. पॉजीटिव केस पाए गए हैं, जिनमें से 86 प्रतिशत 11 से 45 वर्ष के व्यक्तियों में पाया गया है। 1998 से लगातार प्रतिवर्ष औसतन 200 एच.आई.वी. पॉजीटिव केस बढ़ रहे हैं। प्रदेश में मलेरिया की स्थिति को देखा जाए तो देश में होने वाले तमाम मलेरिया प्रकरणों में से 24 प्रतिशत प्रकरणों का योगदान मध्यप्रदेश की तरफ से होता है। प्लास्मोडियम फाल्सीपेरम (एक तरह का सबसे गंभीर मलेरिया) के 40 फीसदी प्रकरण मध्यप्रदेश में दर्ज होते हैं। मलेरिया के कारण होने वाली कुल मौतों में से केवल मध्यप्रदेश में ही 20 प्रतिशत होती हैं। मध्यप्रदेश में टी.बी. का प्रकोप भी खतरनाक स्तर पर है। मीडियम टर्म हेल्थ सेक्टर स्ट्रेटजी- 2006 के अनुसार 2005 में 85 व्यक्ति प्रति लाख टी.बी. से ग्रसित थे। स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2006 में 111 मरीज प्रति लाख चिन्हित किए गए। वर्ष 2007 में जनवरी से मार्च तक की स्थिति में 104 प्रति लाख टी.बी. के मरीज चिन्हित किए गए हैं।
राज्य की औद्योगिक नीतियों के तहत जिन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को प्रदेश में आमंत्रित किया गया है, उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों का बंटाधार कर दिया है। नदियों किनारे स्थित कारखाने अपने अवषिष्टों को यूं ही फेंक रहे हैं, जिससे आस-पास के खेतों की उवर्रता खत्म हो रही है और भू-जल के साथ-साथ नदियां भी प्रदूषित हो रही है। बहुराष्ट्रीय कम्परियों को भूजल दोहन के असीमित अधिकार दिए जा रहे हैं और पानी का निजीकरण किया जा रहा है। प्रदेश में पानी को लेकर अक्सर हिंसक झड़प की खबर आती है। भूजल स्तर गिर जाने से, पानी में कारखानों के अवषिष्ट पदार्थों एवं रसायनों के घुल जाने से भूजल में नाइट्रेट बढ़ रहा है। मध्यप्रदेश में फ्लोरोसिस रोग से पीड़ितों की संख्या बढ़ रही है। राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 2020 तक झुग्गी बस्ती में रहने वाली कुल जनसंख्या में से कम से कम 10 करोड़ लोगों के जीवन स्तर में सुधार करने का लक्ष्य है। पर ग्रामीणों की आजीविका खत्म करना, जंगल के आश्रितों को विस्थापित करना, खेती में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आमंत्रित कर किसानों एवं खेत मजदूरों को बेदखल करने और उसके बाद शहरों पर बढ़ते दबाव एवं अवैध कॉलोनियों के विकसित होने से प्रदेश की स्थिति और खराब हुई है।
यदि प्रदेश में 51 सालों के बाद भी बुनियादी सुविधाओं का लाभ निचले स्तर तक नहीं पहुंच पाया है, तो इस पर व्यापक बहस चलाए जाने की जरूरत है, ताकि सही मायने में विकास का लाभ वंचित समुदाय वंचित भी ले सके।
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