Wednesday, November 7, 2007

भोपाल भी आ गया मॉल की चपेट में

नि:संदेह भोपाल को जिन खूबियों के कारण जाना जाता था, उसमें एक बहुत ही महत्‍वपूर्ण खूबी यह थी कि भोपाल अपने को बाजार से बचाये रखा था। बड़े फख्र के साथ हम यह कहा करते थे कि भोपाल में कोई शॉपिंग मॉल नहीं है और न ही यहां के लोगों को इसकी जरूरत है। हां, कुछ लोग थे, जिन्‍हें मॉल से खरीददारी करने का शौक था और है भी, वे महज पांच घंटे की दूरी तय करके इंदौर जाते थे और वहां से खरीददारी करते थे। वे अभिमान के साथ कहा करते थे कि हम इंदौर के अमूक शॉपिंग मॉल से खरीददारी करके आये हैं। पर फिर भी हमारा अनुमान था कि भोपाल की बहुसंख्‍यक जनता मॉल को नहीं चाहती, और नहीं चाहती का मतलब नहीं चाहती।

पिछ्ले
दिनों जब रिलायंस फ्रेश का भोपाल में विरोध हुआ था, तब लगा था कि की जनता विकास की अंधी दौड़ में शामिल नहीं होना चाहती, जिसमें समाज के वंचित तबके को जगह ही नहीं मिले और वह समाज से पूरी तरह बहिष्‍कृत हो जाए। क्‍योंकि शहरी विस्‍थापन इस पूंजीवादी व्‍यवस्‍था का एक क्रूर रूप है, जिसका एक महत्‍वपूर्ण घटक बाजारवाद भी है। इन परिस्थितियों में भोपाल को अपनी पुरानी पहचान को बनाये रखने के लिए यह जरूरी था कि उन शक्तियों का विरोध किया जाय, जो पहचान पर हमला करती हो। भोपाल राजधानी होते हुए भी व्‍यावसायिक गतिविधियों का केन्‍द्र नहीं रहा है। भोपाल के लोगों को इस बात का इल्‍म ही नहीं था कि सिर्फ नहीं चाहने भर से ही बाजार का विरोध नहीं हो सकता, बल्कि विरोध के तेवर साफ-साफ नजर भी आने चाहिए। पिछले कुछ समय से बड़ी-बड़ी कंपनियों के आउटलेट भोपाल में खुलते जा रहे थे, जो बाजार को हावी हो जाने के लिए रास्‍ता तैयार कर रहे थे।

आखिरकार भोपाल अपने को बाजार के हवाले कर ही दिया और यहां एक बड़ी कंपनी का मॉल खुल गया। मॉल का खुलना उतना आश्‍चर्यजनक नहीं था, जितना उसको मिले रिस्‍पांस को देखना आश्‍चर्यजनक था। एक साथ दर्जनों पेयमेण्‍ट काउण्‍टर पर दर्जनों की लाइन (बिलिंग के लिए)।
भोपाल में प्रवेश कर चुकी यह मॉल संस्‍कृति का परिणाम क्‍या होगा, यह तो बाद की बात है, पर मंझोले एवं छोटे दुकानदारों के लिए मुश्किलों का दौर शुरू तो हो ही गया।

सबसे दु:खद बात तो यह है कि अब मैं किसी से यह नहीं कह सकता कि भोपाल में मॉल नहीं है और यह शहर अभी भी अपने निम्‍न एवं मध्‍य वर्गीय चरित्र को जी रहा है।

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