Tuesday, November 6, 2007

वंचितों पर बाजार का दबाव

साल-दर-साल बाजार का विस्तार होता जा रहा है। बड़े शहरों से बाहर निकल कर बाजार गांवों में पहुंच चुका है. बाजार को जाति एवं वर्ग भेद से कोई लेना-देना नहीं है। वह बिना किसी भेदभाव के सभी को उपभोक्ता में बदल रहा है, क्या अमीर-क्या गरीब। उसके पास सभी के उपभोग के लिए छोटे-बड़े आयटम हैं। नहीं खरीद सकने वालों के लिए ऋण की व्यवस्था है - बहुत ही सरल एवं आसान किश्‍तों पर (ऋण लेने वाले इसकी सरलता जानते हैं)। यूं तो पूरे साल भर किसी न किसी बहाने बाजार लोगों को लुभाता है पर दशहरा से लेकर दीपावली के बीच बाजार आक्रामक हो जाता है। भारत में इस अवधि का अपना खास महत्व है और अभावों के बावजूद हर हाल में कुछ न कुछ खरीदारी का रिवाज है। तब जब बाजार हावी नहीं था, अभावग्रस्त समुदाय अति जरूरी समानों की खरीददारी करता था पर अब उन पर बाजार का दबाव हावी हो गया है। विभिन्न कंपनियां इतने लुभावने अंदाज में बाजार में आई हैं कि व्यक्ति अपने को कब तक और कैसे अपने को रोक पाए, वह समझ नहीं रहा है।

बाज़ार के अध्ययर्नकत्ताओं का कहना है कि बड़े शहरों में लोगों में निवेश के प्रति ज्यादा रूझान हुआ है और छोटे शहरों में उपभोक्ता वस्तुओं के प्रति लोगों का रूझान बढ़ा है। यानी यह साफ दिख रहा है कि निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग में उपभोक्ता वस्तुओं के प्रति रूझान बढ़ा है (बढ़ाया जा रहा है)। यद्यपि उदारवाद के पैरोकारों का कहना है कि लोगों में खरीदने की क्षमता (परचेजिंग कैपिसिटी) में इजाफा हुआ है क्योंकि लोगों के वेतन और भत्तों में भारी बढ़ोतरी हुई है। ये वही लोग हैं जो इंडिया शाइनिंग की बात करते थे। पर वे समाज के स्याह पक्ष को भूल जाते हैं, जिसमें समाज की बड़ी आबादी जीने के लिए अभिशप्त है।

बाजार नए जीवन मूल्य गढ़ रहा है। बाजार ही तय कर रहा है कि लोग क्या पहने, क्या खाये, क्या पीये या यूं कहें कि कैसे जिएं? बाजार लोगों को सोचने का मौका नहीं देना चाहता। एक से बढ़ कर एक लुभावने उपहारों एवं छूट के बीच यह स्लोगन कि यह मौका बस आज के लिए है और यदि चूक गए तो यह मानो कि आपने जीवन के एक बहुमूल्य अवसर को खो दिया। बाजार ने एक ऐसी प्रतियोगिता के बीच लोगों को लाकर खड़ा कर दिया है, जिसकी होड़ में शामिल होकर पूरा का पूरा तबका गरीबी के दुश्‍चक्र में शामिल हो रहा है। यह प्रतियोगिता सामाजिक प्रतिष्ठा को लेकर है। यदि आपने बड़ी खरीददारी नहीं की या फिर आपके पास कुछ ब्राण्ड के खास आइटम नहीं है, तो इसे समाजिक प्रतिष्ठा का प्रश्‍न बना दिया जाता है, यानी भले ही ऋण लेकर खरीददारी करें पर खरीददारी जरूर करें। निम्न वर्ग साहूकर से ऋण ले या फिर बैंकों से, किसी का परिणाम जीवन के सुकून को खत्म करने वाला ही है।

बाजार की चपेट में आकर वंचित समुदाय का जीवन कैसे दुरूह हो जाता है, इसे हाल की घटनाओं से अच्छी तरह समझा जा सकता है. नर्मदा बांध के विस्थापितों को जब मुआवजा राशि मिली, तब प्रभावित जिलों में दो-पहिया वाहन कंपनियों ने अनेक लुभावने स्लोगन और छूट के मार्फत बड़ी संख्या में वाहनों को बेचा। आलम यह रहा कि जिन्हें वाहन चलाना नहीं आता था, उन्होंने भी वाहन खरीदा और दो पहिया वाहनों के लिए ड्राइवरों को रखा। परिणाम यह हुआ कि मुआवजे में मिली राशि उपभोग की भेंट चढ़ गई और वे दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं।
इसी तरह जब भोपाल गैस त्रासदी का प्रेरोटा आधार पुन: मुआवजा दिया जा रहा था तब भी बाजार में उछाल आया था और जो पैसा लोगों के जीवन स्तर को सुधारने के लिए था वह बाजार की भेंट चढ़ गया। यद्यपि भोपाल का यह चरित्र नहीं रहा है कि वह बाज़ार के दबाव में बहे, पर बाज़ार कि ताकतें इसके लिए पुरजोर कोशिशें कर रही हैं

वर्तमान में जब लोगों के जीवन से मूलभूत सुविधाएं दूर होती जा रही है और शिक्षा एवं स्वास्थ्य महंगी होती जा रही है, तब वंचितों पर बढ़ता बाजार का दबाव उनके लिए घातक है। बाजार के दबाव में बनी परिस्थितियों के बीच उनके द्वारा खरीदे गए छोटी-मोटी उपभोक्ता वस्तुओं के कारण मध्य वर्ग यह मानने को कतई तैयार नहीं कि वे गरीब हैं और त्रासदी यह है कि सरकार ने भी अन्य कारणों के साथ-साथ इस कारण से भी उन्हें गरीबी रेखा से ऊपर धकिया दिया है और उन्हें विभिन्न सरकारी योजनाओं से वंचित कर दिया है। इस तरह से वे सामाजिक एवं आर्थिक दोनों तरह से बहिष्कृत हो रहे हैं।

1 comment:

Sushil Gangwar said...

Hello
Sir

we r running journalism community site www.pressvarta.com . Plz make your profile & share ur News , Video , Blogs , Pics .

Regard
sushil Gangwar
www.pressvarta.com
www.sakshatkarv.com