भारत में खेलों की संख्या इतनी ज्यादा रही है कि उसकी गिनती तो दूर उतने खेलों में भाग लेना भी एक व्यक्ति के लिए मुश्किल रहा है। क्रिकेट की लोकप्रियता के पहले ग्रामीण अंचलों मे कई ऐसे खेल थे, जिन्हें खेलते हुए हम पले-बढ़े हैं पर ज्यों-ज्यों क्रिकेट लोकप्रिय होता गया हम (मैं) उन खेलों याद तो कर पाते हैं पर उनके नाम याद करने के लिए दिमाग पर जोड़ देना पड़ता है। बहुत ही मजेदार खेल हुआ करते थे, जो खेतों और बगीचा से जुड़े हुए थे।
आंखमिचौली सबसे लोकप्रिय खेल हुआ करता था, जब शाम को सारे बच्चे इकट्ठे होकर गलियों में धूम मचाया करते थे। बगीचे में दोल्हा-पाती (पेड़ की डालियों पर लटकना और कूदना) खेलते हुए पेड़-पत्तों से दोस्ती करने का मजा ही कुछ और था। लौटते वक्त रास्तें के किसी खेत से मूली, गाजर, बैंगन, टमाटर, भिंडी आदि को कच्चे खाने का आनंद ही कुछ अलग था। स्कूलों में कबड्डी और बुढ़िया कबड्डी सबसे लोकप्रिय। हां, कांचा को तो मैं भूल ही गया। और भी न जाने क्या-क्या।
यह मानना थोड़ा दुखदायी होगा कि क्रिकेट के बाद इन खेलों का अस्तित्व शायद ही बच पाएगा। हम इस बात का जिक्र पहले के पोस्ट में कर चुके हैं कि क्रिकेट को बढ़ाने में बाजारवाद का सबसे बड़ा हाथ है।
आखिर इन खेलों में क्या खास रहा है कि इनके नहीं रहने से बाजार को लाभ मिलेगा। सारे खेलों की बात हम नहीं करें तो भी हम उपरोक्त तीन खेलों को केन्द्र में रखकर अपनी बात को आगे बढ़ाएं।
बाजारवाद का यह मूलमंत्र होता है कि सामूहिकता को तोड़ा जाए। यदि गलियों में बच्चे एक साथ खेलेंगे तो उनमें सामूहिकता की भावना तो आएगी ही पर यदि इस खेल को खत्म करने के लिए दूसरे खेलों को बढ़ावा दिया जाए तब क्या होगा? रोज क्रिकेट। कभी किसी के साथ, तो कभी किसी के साथ, नए-नए रूप में। तो बच्चे गलियों में निकलेंगे या टी.व्ही. सेट से चिपके रहेंगे। एकल परिवार में उपभोक्तावाद को बढ़ाने में मदद तो मिलेगा ही।
दूसरा महत्वपूर्ण खेल है पेड़-पौधों के साथ। इस खेल को खेलने से कहीं न कहीं बच्चों को अपने प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ाव महसूस करते हैं। यदि उनका प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ाव हो गया, तो बहुराष्ट्रीय कंपनियां संसाधनों का दोहन कैसे कर पाएंगी।
तीसरा मामला स्कूल में खेले जाने वाले खेलों से जुड़ा है। अफसोसजनक बात है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने के लिए कमरे नहीं है, तो खेल का मैदान कहां से आएगा। यदि इन खेलों को बढ़ावा दिया जाएगा, तो इसके लिए स्कूलों में खेल के मैदान की मांग उठेगी। फिर बात बढ़ेगी और बेहतर शिक्षा की मांग उठेगी। क्या इससे सरकार को परेशानी नहीं होगी, क्या शिक्षा के व्यापार में उतरी कंपनियों को झटका नहीं लगेगा?
उम्मीद है कि इन बातों को जानकर आप नए सिरे से इस मामले को समझ पाएंगे कि खेल की दुनिया में क्या हो रहा है और लिखे हुए से आगे की बात सोचेंगे।
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Friday, April 25, 2008
क्रिकेट का बाजार भाव
पिछले दिनों से क्रिकेट में एक बूम आया है २० ट्वेंटी को लेकर। यह क्रिकेट का आधुनिकतम रूप है। इस पर यह बहस चलाई जा रही है कि सभ्य लोगों के खेल में इस तरह का बदलाव सही नहीं है। इसे बिकनी क्रिकेट कहा जा रहा है। यह ग्लैमर से भरपूर है। भारतीय दर्शकों के लिए जो क्रिकेटरों को भगवान मानते हैं और क्रिकेट की पूजा करते हैं यह बहुत ही रोमांचक बदलाव की तरह लग रहा है। यद्यपि कुछ पुराने क्रिकेटरों की तरह पुराने दर्शक यानी क्रिकेट प्रेमी इस बदलाव से नाखुश है। अब तो सचिन तेंदुलकर ने भी यह कह दिया कि इससे एकदिवसीय क्रिकेट का नुकसान होगा पर टेस्ट क्रिकेट का नहीं। कुछ इस तरह की आशंका उस समय भी जाहिर की गई थी, जब एकदिवसीय क्रिकेट को लाया गया था।
जब एकदिवसीय क्रिकेट की अवधारणा को मूर्त रूप दिया जा रहा था तब उसके पैरोकारों ने यह कहा था, कि इससे क्रिकेट का पूरी दुनिया में विस्तार होगा। ऐसा हुआ नहीं। अब भी 20 ट्वेंटी के पैरोकार इसी बात की दुहाई दे रहे हैं।
यदि इस खेल की बारीकियों को देखा जाये तो पता चलता है कि इसके पैरोकारों को क्रिकेट के विस्तार से कुछ लेना-देना नहीं है बल्कि यह बाजार के विस्तार का खेल है। ग्लैमर से भरपूर क्रिकेट के इस नवीनतम रूप में जिस तरह से खिलाड़ियों की बोली लगाई गई और इससे फिल्मी सितारों को जोड़ा गया है, वह इस बात की पुष्टि करता है। चुंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार ने तीसरी दुनिया में व्यापक विस्तार पा लिया है और उसे उपभोक्ताओं को रिझाने के लिए कई हथकंडे अपनाने पड़ रहे हैं। भारत जैसे विशाल मार्केट वाले देश में क्रिकेट बाजार को विस्तार देने के लिए एक महत्वपूर्ण जरिया है और इसे प्रमोट करने में दुनिया की नामी-गिरामी कंपनियों में होड़ मची हुई है। इस खेल को धन का खेल कहा जाता है। क्रिकेट सटोरियों का भी प्रिय खेल है और कई ऐसे स्कैंडल देखने को मिलते रहे हैं, जो यह दर्शाता है कि क्रिकेट को बढ़ावा देने के पीछे खेल भावना का मामला नहीं है बल्कि सिर्फ बाजार के विस्तार का मामला है। यदि ऐसा नहीं होता तो क्यों सिर्फ इसी खेल को प्रमोट करने और इसके खिलाड़ियों को ज्यादा तव्वजों दिए जाने के मामले हमारे सामने होते।
हमें यह देखना होगा कि खेल और ग्लैमर को अलग-अलग करने के लिए किस तरह की नीतियों की जरूरत होगी। खिलाड़ियों को विज्ञापनों में काम करने के मामले को लेकर भी नए सिरे से बहस चलाने की जरूरत है।
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जब एकदिवसीय क्रिकेट की अवधारणा को मूर्त रूप दिया जा रहा था तब उसके पैरोकारों ने यह कहा था, कि इससे क्रिकेट का पूरी दुनिया में विस्तार होगा। ऐसा हुआ नहीं। अब भी 20 ट्वेंटी के पैरोकार इसी बात की दुहाई दे रहे हैं।
यदि इस खेल की बारीकियों को देखा जाये तो पता चलता है कि इसके पैरोकारों को क्रिकेट के विस्तार से कुछ लेना-देना नहीं है बल्कि यह बाजार के विस्तार का खेल है। ग्लैमर से भरपूर क्रिकेट के इस नवीनतम रूप में जिस तरह से खिलाड़ियों की बोली लगाई गई और इससे फिल्मी सितारों को जोड़ा गया है, वह इस बात की पुष्टि करता है। चुंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार ने तीसरी दुनिया में व्यापक विस्तार पा लिया है और उसे उपभोक्ताओं को रिझाने के लिए कई हथकंडे अपनाने पड़ रहे हैं। भारत जैसे विशाल मार्केट वाले देश में क्रिकेट बाजार को विस्तार देने के लिए एक महत्वपूर्ण जरिया है और इसे प्रमोट करने में दुनिया की नामी-गिरामी कंपनियों में होड़ मची हुई है। इस खेल को धन का खेल कहा जाता है। क्रिकेट सटोरियों का भी प्रिय खेल है और कई ऐसे स्कैंडल देखने को मिलते रहे हैं, जो यह दर्शाता है कि क्रिकेट को बढ़ावा देने के पीछे खेल भावना का मामला नहीं है बल्कि सिर्फ बाजार के विस्तार का मामला है। यदि ऐसा नहीं होता तो क्यों सिर्फ इसी खेल को प्रमोट करने और इसके खिलाड़ियों को ज्यादा तव्वजों दिए जाने के मामले हमारे सामने होते।
हमें यह देखना होगा कि खेल और ग्लैमर को अलग-अलग करने के लिए किस तरह की नीतियों की जरूरत होगी। खिलाड़ियों को विज्ञापनों में काम करने के मामले को लेकर भी नए सिरे से बहस चलाने की जरूरत है।
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Thursday, April 24, 2008
बाजार की आंधी और आधी आबादी
पिछले कई दिनों से दोस्तों के बीच यह चर्चा का विषय रहा है कि क्या महिलाओं को उनके अधिकार मिल पाएंगे। यदि मिलेंगे तो किस प्रकार से - मांगने से या छिनकर। मांगने से अधिकारों का मिलना संभव नहीं दिखता, ऐसी राय सबकी थी पर छिनने के प्रति भी किसी ने सहमति नहीं दिखाई। संभवत: हमारा पुरुष होना इसका कारण रहा हो।
यदि इस बहस में नहीं पड़ा जाए तो भी भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के बाद एक व्यापक बदलाव देखने को मिला है, वह यह कि महिलाएं पुरुषों न तो अधिकार मांग रही है और न ही छिन रही है बल्कि अपने अधिकारों का उपयोग खुद से आगे बढ़कर कर रही है। इस प्रक्रिया में यह साफ दिख रहा है, पुरुषों के सहारे के बिना या उनसे उलझे बिना महिलाओं को अधिकारों से लैस हो जाने पर पितृसतात्मक समाज उसे स्वीकार नहीं कर रहा है।
यदि बिना विस्तार में गए कारणों को देखा जाए तो दो कारण साफ नजर आ रहे हैं। पहला यह कि समाज की मानसिकता में कोई बदलाव नहीें आया है और वह महिलाआेंं को उनके पुराने रूप में देखना चाहता है। दूसरा यह कि बाजारीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है और इसमें महिलाओं को कमोडिटी के रूप में इस्तेमाल बढ़ा है। ऐसे में महिलाओं पर हिंसा तेज हुई है। बाजार और पितृसतात्मक समाज की दोनों तरफ से।
इन स्थितियों को देखकर यह साफ लगता है कि बाजारवाद के खिलाफ आंदोलन तेज करना होगा और पुराने समाज की मानसिकता के खिलाफ लड़ाई तेज करनी होगी। तभी संभव की आधी आबादी अपने अधिकारों से लैस होगी।
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यदि इस बहस में नहीं पड़ा जाए तो भी भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के बाद एक व्यापक बदलाव देखने को मिला है, वह यह कि महिलाएं पुरुषों न तो अधिकार मांग रही है और न ही छिन रही है बल्कि अपने अधिकारों का उपयोग खुद से आगे बढ़कर कर रही है। इस प्रक्रिया में यह साफ दिख रहा है, पुरुषों के सहारे के बिना या उनसे उलझे बिना महिलाओं को अधिकारों से लैस हो जाने पर पितृसतात्मक समाज उसे स्वीकार नहीं कर रहा है।
यदि बिना विस्तार में गए कारणों को देखा जाए तो दो कारण साफ नजर आ रहे हैं। पहला यह कि समाज की मानसिकता में कोई बदलाव नहीें आया है और वह महिलाआेंं को उनके पुराने रूप में देखना चाहता है। दूसरा यह कि बाजारीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है और इसमें महिलाओं को कमोडिटी के रूप में इस्तेमाल बढ़ा है। ऐसे में महिलाओं पर हिंसा तेज हुई है। बाजार और पितृसतात्मक समाज की दोनों तरफ से।
इन स्थितियों को देखकर यह साफ लगता है कि बाजारवाद के खिलाफ आंदोलन तेज करना होगा और पुराने समाज की मानसिकता के खिलाफ लड़ाई तेज करनी होगी। तभी संभव की आधी आबादी अपने अधिकारों से लैस होगी।
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महिला स्वास्थ्य की चुनौतियां
मध्यप्रदेश में महिला स्वास्थ्य में सुधार लाना एक चुनौती है। यह चुनौती संसाधनों की कमी के कारण नहीं पैदा हुई बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव, स्वास्थ्य सेवाओं के निचले ढांचे में सुधार का अभाव और विभिन्न योजनाओं का लाभ जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पाने के कारण है। यह साफ नजर आ रहा है कि जमीनी स्तर पर महिला स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए विकल्पों पर विचार नहीं किया जा रहा है। यद्यपि पिछले दशकों की तुलना में मातृत्व मृत्यु दर में कमी देखी जा रही है पर इसके बावजूद प्रदेश में अभी भी प्रति वर्ष 7700 मातृत्व मृत्यु हो रही है।
सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों के तहत भी महिला स्वास्थ्य को बेहतर बनाने का लक्ष्य रखा गया है, जिसके तहत यह निहित है कि वर्ष 2015 तक मातृत्व मृत्यु को तीन चौथाई कम करना है। यदि सरकारी आंकड़ों को ही देखें, तो 10 वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश में मातृत्व मृत्यु का औसत 498 प्रति लाख था, जो कि वर्तमान में 379 प्रति लाख के स्तर पर आ गया है। मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य नीति के अनुसार वर्ष 2011 तक मातृत्व मृत्यु दर को 220 प्रति लाख के स्तर तक लाना है। यह लक्ष्य 1997 के 498 प्रति लाख मातृत्व मृत्यु दर के आधार पर रखा गया था। मीडियम टर्म हेल्थ सेक्टर स्ट्रेटजी- 2006 में 2005 की स्थिति में मातृत्व मृत्यु दर 400 प्रति लाख माना गया है।
सरकार बार-बार यह दर्शाने की कोशिश कर रही है कि प्रदेश में महिला स्वास्थ्य में व्यापक सुधार हुआ है। यह सही है कि जितनी योजनाएं चल रही है, उसका बेहतर क्रियान्वयन हो तो निश्चय ही गुणात्मक सुधार देखने को मिलेगा पर स्वास्थ्य विभाग का निचला ढांचा इतना कमजोर हो गया है कि इस दावे पर विश्वास करना संभव नहीं है कि प्रदेश में महिला स्वास्थ्य में व्यापक सुधार हुआ है। सरकार स्वयं इस बात को स्वीकार कर रही है कि प्रदेश में डॉक्टरों की भारी कमी है, खासतौर से महिला डॉक्टरों की तब महिलाओं को बेहतर स्वास्थ्य कैसे मिल रहा है? पिछले विधान सभा सत्र में महिला डॉक्टरों की कमी को लेकर बहुत कम समय के लिए, पर गंभीर चर्चा हुई थी, जिसमें यह कहा गया कि आयुष की महिला डॉक्टरों को प्रशिक्षित कर उन्हें ग्रामीण अंचलों में पदस्थ कर महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराई जाएगी पर अभी तक इस पर क्या हुआ, की जानकारी किसी को नहीं है।
प्रदेश में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी चल रही है, बल्कि इस पर अमल करने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है। स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के प्रयास और बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को निजी क्षेत्र को सौंपना, दोनों विरोधाभाषी काम है। स्वास्थ्य सेवाओं को निजी हाथों में सौंपना, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की प्रक्रिया को उल्टी दिशा में ले जाने वाला कदम है। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण करने से तमाम सरकारी दावों के बावजूद महिला एवं बाल स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ेगा, तब न मातृ मृत्यु में कमी लाई जा सकती है और न ही बाल मृत्यु में। यह प्रदेश के लिए दुखद बात है कि बढ़ती आबादी के अनुपात में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार नहीं किया गया। इस स्थिति को सुधारने के बजाय इसे निजी हाथों में देने की तैयारी का अर्थ आम लोगों से स्वास्थ्य के बुनियादी अधिकार को छिनने की साजिश ही हो सकती है। अभी भी जिन समुदायों एवं इलाकों में महिला एवं बाल मृत्यु ज्यादा है, उन इलाकों से स्वास्थ्य केन्द्रों तक आना लोगों के लिए खर्चीला काम है, इस पर भी यदि स्वास्थ्य सेवाओं को निजी कर दिया गया, तो लोग स्वास्थ्य केन्द्रों में जाने के बजाय नीम-हाकिम एवं बाबाओं की शरण में ही जाएंगे। उसके बाद स्वास्थ्य की स्थिति सुधरेगी या फिर बिगड़ेगी, आसानी से समझा जा सकता है।
यदि इन तथ्यों को देखा जाये, तो पता चलता है कि प्रदेश में मातृत्व स्वास्थ्य में सुधार लाने के लिए नीतिगत प्रयासों की ज्यादा जरूरत है। वर्तमान में सरकार मातृत्व स्वास्थ्य के लिए कई योजनाएं संचालित कर रही है, जिसमें - जननी सुरक्षा योजना, गर्भवती महिला हेतु सुविधा, संस्थागत प्रसव योजना, प्रसव हेतु परिवहन एवं उपचार योजना प्रमुख हैं। पर सवाल यह है कि इन योजनाओं का लाभ उन्हें मिल पा रहा है या नहीं। सिर्फ यही नहीं, बल्कि अस्पताल प्रबंधन का रवैया, गरीबी, अस्पतालों में सुविधाओं का अभाव आदि कई कारण हैं, जो माहिला स्वास्थ्य में सुधार लाने की दिशा में चुनौती हैं।
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सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों के तहत भी महिला स्वास्थ्य को बेहतर बनाने का लक्ष्य रखा गया है, जिसके तहत यह निहित है कि वर्ष 2015 तक मातृत्व मृत्यु को तीन चौथाई कम करना है। यदि सरकारी आंकड़ों को ही देखें, तो 10 वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश में मातृत्व मृत्यु का औसत 498 प्रति लाख था, जो कि वर्तमान में 379 प्रति लाख के स्तर पर आ गया है। मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य नीति के अनुसार वर्ष 2011 तक मातृत्व मृत्यु दर को 220 प्रति लाख के स्तर तक लाना है। यह लक्ष्य 1997 के 498 प्रति लाख मातृत्व मृत्यु दर के आधार पर रखा गया था। मीडियम टर्म हेल्थ सेक्टर स्ट्रेटजी- 2006 में 2005 की स्थिति में मातृत्व मृत्यु दर 400 प्रति लाख माना गया है।
सरकार बार-बार यह दर्शाने की कोशिश कर रही है कि प्रदेश में महिला स्वास्थ्य में व्यापक सुधार हुआ है। यह सही है कि जितनी योजनाएं चल रही है, उसका बेहतर क्रियान्वयन हो तो निश्चय ही गुणात्मक सुधार देखने को मिलेगा पर स्वास्थ्य विभाग का निचला ढांचा इतना कमजोर हो गया है कि इस दावे पर विश्वास करना संभव नहीं है कि प्रदेश में महिला स्वास्थ्य में व्यापक सुधार हुआ है। सरकार स्वयं इस बात को स्वीकार कर रही है कि प्रदेश में डॉक्टरों की भारी कमी है, खासतौर से महिला डॉक्टरों की तब महिलाओं को बेहतर स्वास्थ्य कैसे मिल रहा है? पिछले विधान सभा सत्र में महिला डॉक्टरों की कमी को लेकर बहुत कम समय के लिए, पर गंभीर चर्चा हुई थी, जिसमें यह कहा गया कि आयुष की महिला डॉक्टरों को प्रशिक्षित कर उन्हें ग्रामीण अंचलों में पदस्थ कर महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराई जाएगी पर अभी तक इस पर क्या हुआ, की जानकारी किसी को नहीं है।
प्रदेश में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी चल रही है, बल्कि इस पर अमल करने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई है। स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के प्रयास और बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को निजी क्षेत्र को सौंपना, दोनों विरोधाभाषी काम है। स्वास्थ्य सेवाओं को निजी हाथों में सौंपना, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की प्रक्रिया को उल्टी दिशा में ले जाने वाला कदम है। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण करने से तमाम सरकारी दावों के बावजूद महिला एवं बाल स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ेगा, तब न मातृ मृत्यु में कमी लाई जा सकती है और न ही बाल मृत्यु में। यह प्रदेश के लिए दुखद बात है कि बढ़ती आबादी के अनुपात में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार नहीं किया गया। इस स्थिति को सुधारने के बजाय इसे निजी हाथों में देने की तैयारी का अर्थ आम लोगों से स्वास्थ्य के बुनियादी अधिकार को छिनने की साजिश ही हो सकती है। अभी भी जिन समुदायों एवं इलाकों में महिला एवं बाल मृत्यु ज्यादा है, उन इलाकों से स्वास्थ्य केन्द्रों तक आना लोगों के लिए खर्चीला काम है, इस पर भी यदि स्वास्थ्य सेवाओं को निजी कर दिया गया, तो लोग स्वास्थ्य केन्द्रों में जाने के बजाय नीम-हाकिम एवं बाबाओं की शरण में ही जाएंगे। उसके बाद स्वास्थ्य की स्थिति सुधरेगी या फिर बिगड़ेगी, आसानी से समझा जा सकता है।
यदि इन तथ्यों को देखा जाये, तो पता चलता है कि प्रदेश में मातृत्व स्वास्थ्य में सुधार लाने के लिए नीतिगत प्रयासों की ज्यादा जरूरत है। वर्तमान में सरकार मातृत्व स्वास्थ्य के लिए कई योजनाएं संचालित कर रही है, जिसमें - जननी सुरक्षा योजना, गर्भवती महिला हेतु सुविधा, संस्थागत प्रसव योजना, प्रसव हेतु परिवहन एवं उपचार योजना प्रमुख हैं। पर सवाल यह है कि इन योजनाओं का लाभ उन्हें मिल पा रहा है या नहीं। सिर्फ यही नहीं, बल्कि अस्पताल प्रबंधन का रवैया, गरीबी, अस्पतालों में सुविधाओं का अभाव आदि कई कारण हैं, जो माहिला स्वास्थ्य में सुधार लाने की दिशा में चुनौती हैं।
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Wednesday, April 23, 2008
मीडिया की जनपक्षधरता
वर्तमान मीडिया न केवल बाजार के दबावों को झेल रही है बल्कि सत्ता एवं अराजक तत्वों का भी दबाव उस पर बढ़ा है। यह एक बड़ी विडंबना है कि यदि मीडिया इन दबावों के बाद भी अपनी जनपक्षधरता के साथ चलना चाहे तो उसे अपने ही लोगों की आलोचना का शिकार होना पड़ता है। मीडिया बाजार के साथ कदम ताल करे और उसके बाद अपनी मजबूरी को जाहिर करे, इस बात को भी नजरअंदाज किया जा सकता है, पर यदि दूसरे अखबार या चैनल उसके जैसा चरित्र नहीं रखना चाहे तो उसे खारिज करने वालों में सबसे आगे उसके साथी माध्यम वाले ही होंगे। इसके पीछे जो सबसे बड़ा कारण नजर आ रहा है, वह यह है कि यदि कोई अखबार या चैनल यह संदेश देना चाहे कि पाठक या दर्शकों की पसंद को वे प्रस्तुत करते हैं, तो वह झूठा साबित होगा। यह मीडिया के साथ एक बड़ी समस्या है, न वह खुद जनपक्षीय रहना चाहती है और न ही अपने दूसरे बिरादराना माध्यमों को।
भोपाल से प्रकाशित दैनिक जागरण अखबार के बारे में कुछ दिन पूर्व एक विश्लेषक ने अपनी टिप्पणी कुछ इस तरह से दी - पिछले छह-सात दिनों में अंदर के पृष्ठों पर घुटन, संत्रास और पीड़ा झलक रही है, जो अपमार्केट होते जा रहे अखबारों में फिट नहीं बैठती।
यह महज एक टिप्पणी भर नहीं है बल्कि वर्तमान दौर की पत्रकारिता, मीडिया का रूख और बाजार के दबावों का विश्लेषण है, जिसके माध्यम से हम इस बात का आकलन कर सकते हैं कि मीडिया किसके पक्ष में खड़ा है। सामान्य रूप से देखने में यह लगता है कि अखबार के लिए यह आलोचना है, पर यदि इसे आलोचना मान लिया जाए तो भी यह एक नई बहस को जन्म देता है कि आखिर क्या कारण रहा है कि भोपाल जागरण को अपमार्केटिंग के इस दौर में डाउनमार्केटिंग की दिशा में जाना ज्यादा बेहतर लग रहा है।
यह बिल्कुल सही है कि पिछले कुछ दिनों से जागरण का मिजाज बदला हुआ नजर आ रहा है, जिस पर आम जन की निगाहें तो जा ही रही है, साथ ही साथ अन्य अखबारों में भी चर्चाओं का दौर चल रहा है। इतना ही नहीं, अखबार के भीतर भी बहस का दौर जारी है।
दबाव समूहों को नजरअंदाज करते हुए संपादक का यह निर्णय काबिल-ए-तारिफ है कि सामाजिक प्रतिबद्वता से विचलन नहीं होगा और अखबार का रूख आंतरिक एवं बाह्य दबावों के बीच मानवीय रहेगा। संपादक ने सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्वता जाहिर करते हुए दो बार अपील भी प्रकाशित की और प्रदेश के बौद्विक तबका से इस बात का आग्रह किया कि वे अपने लेखन से वंचित तबके की आवाज लाएं, जागरण उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनेगा।
सवाल यह है कि क्या अखबार का यह बदलाव यूं ही हो गया है या फिर इसके पीछे कोई प्रक्रिया रही है। नि:संदेह वर्तमान दौर की परिस्थितियां अखबार में ऐसे बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। समाज में जिस तरह से अधिकारों को लेकर सजगता बढ़ी है और इसके लिए आमजन लगातार संघर्ष कर रहे हैं, उस परिस्थिति में अखबार द्वारा उनका नजरअंदाज किया जाना मुश्किल लगता है। यदि जनमुद्दों से अखबारों की दूरी बरकरार रही तो इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि पाठक अखबार का विरोध करना शुरू कर दें। सबसे अहम पहलु विश्वसनीयता और उत्तरदायित्व को लेकर है। अपमार्केट के दौर में जो खबरें परोसी जा रही हैं, उन खबरों क्या विश्वसनीयता होगी, क्या लोगों में अब इस बात की चर्चा नहीं होने लगी है कि मीडिया का विश्वास करना कठिन है। हिन्दी अखबारों के सामने एक अहम सवाल यह भी तो है कि उनके पाठक वर्ग में भी बदलाव आ रहा है और जो नया वर्ग है वह किसी न किसी रूप में जन सरोकारों से वास्ता रखता है।
दैनिक जागरण ने जो राह अख्तियार किया है, उस पर वह लम्बे समय से टिका हुआ है। किसी टे्रंड को बदलने के लिए संयम की जरूरत होती है। संभव है कि इसके एवज में जागरण को कई लोगों का आलोचना भी झेलना पड़े, पर इसका अर्थ यह कतई नहीं लगाना चाहिए कि जो बदलाव किया गया है, वह सही दिशा में नहीं जा रहा है या फिर अपमार्केट के दौर में वह फिट नहीं है बल्कि इसकी ज्यादा संभावना है कि अखबारों के अपमार्केट में जाने की राह भी यही से निकलेगी और संभवना से इंकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले समय में अन्य अखबार भी इसी राह पर चलेंगे। हां, इस बदलाव पर कायम रहने के लिए दृढ़निश्चयी होना जरूरी है और इस प्रक्रिया को लंबे समय तक चलाये रखना भी जरूरी है।
बाजार के पैरोकार प्रचारित कर रहे हैं, विकास के मुद्दों पर बात करने की क्या जरूरत है, विकास की खबरों को पढ़ता कौन है?
पर भोपाल जागरण के इस उत्तरदायित्वबोध के कारण उसकी विश्वसनीयता में भी इजाफा हुआ है। समाज के वंचित और बहिष्कृत समुदाय के मुद्दे को अखबार में स्थान देते हुए उनकी आवाज को मुखरता देते हुए इसने सही मायने में मानवीयता को महत्व दिया है, जिसके गुम हो जाने की चिंता आज हर किसी को सता रही है।
blogathonindia, blogathonindia1
भोपाल से प्रकाशित दैनिक जागरण अखबार के बारे में कुछ दिन पूर्व एक विश्लेषक ने अपनी टिप्पणी कुछ इस तरह से दी - पिछले छह-सात दिनों में अंदर के पृष्ठों पर घुटन, संत्रास और पीड़ा झलक रही है, जो अपमार्केट होते जा रहे अखबारों में फिट नहीं बैठती।
यह महज एक टिप्पणी भर नहीं है बल्कि वर्तमान दौर की पत्रकारिता, मीडिया का रूख और बाजार के दबावों का विश्लेषण है, जिसके माध्यम से हम इस बात का आकलन कर सकते हैं कि मीडिया किसके पक्ष में खड़ा है। सामान्य रूप से देखने में यह लगता है कि अखबार के लिए यह आलोचना है, पर यदि इसे आलोचना मान लिया जाए तो भी यह एक नई बहस को जन्म देता है कि आखिर क्या कारण रहा है कि भोपाल जागरण को अपमार्केटिंग के इस दौर में डाउनमार्केटिंग की दिशा में जाना ज्यादा बेहतर लग रहा है।
यह बिल्कुल सही है कि पिछले कुछ दिनों से जागरण का मिजाज बदला हुआ नजर आ रहा है, जिस पर आम जन की निगाहें तो जा ही रही है, साथ ही साथ अन्य अखबारों में भी चर्चाओं का दौर चल रहा है। इतना ही नहीं, अखबार के भीतर भी बहस का दौर जारी है।
दबाव समूहों को नजरअंदाज करते हुए संपादक का यह निर्णय काबिल-ए-तारिफ है कि सामाजिक प्रतिबद्वता से विचलन नहीं होगा और अखबार का रूख आंतरिक एवं बाह्य दबावों के बीच मानवीय रहेगा। संपादक ने सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्वता जाहिर करते हुए दो बार अपील भी प्रकाशित की और प्रदेश के बौद्विक तबका से इस बात का आग्रह किया कि वे अपने लेखन से वंचित तबके की आवाज लाएं, जागरण उसकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनेगा।
सवाल यह है कि क्या अखबार का यह बदलाव यूं ही हो गया है या फिर इसके पीछे कोई प्रक्रिया रही है। नि:संदेह वर्तमान दौर की परिस्थितियां अखबार में ऐसे बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। समाज में जिस तरह से अधिकारों को लेकर सजगता बढ़ी है और इसके लिए आमजन लगातार संघर्ष कर रहे हैं, उस परिस्थिति में अखबार द्वारा उनका नजरअंदाज किया जाना मुश्किल लगता है। यदि जनमुद्दों से अखबारों की दूरी बरकरार रही तो इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि पाठक अखबार का विरोध करना शुरू कर दें। सबसे अहम पहलु विश्वसनीयता और उत्तरदायित्व को लेकर है। अपमार्केट के दौर में जो खबरें परोसी जा रही हैं, उन खबरों क्या विश्वसनीयता होगी, क्या लोगों में अब इस बात की चर्चा नहीं होने लगी है कि मीडिया का विश्वास करना कठिन है। हिन्दी अखबारों के सामने एक अहम सवाल यह भी तो है कि उनके पाठक वर्ग में भी बदलाव आ रहा है और जो नया वर्ग है वह किसी न किसी रूप में जन सरोकारों से वास्ता रखता है।
दैनिक जागरण ने जो राह अख्तियार किया है, उस पर वह लम्बे समय से टिका हुआ है। किसी टे्रंड को बदलने के लिए संयम की जरूरत होती है। संभव है कि इसके एवज में जागरण को कई लोगों का आलोचना भी झेलना पड़े, पर इसका अर्थ यह कतई नहीं लगाना चाहिए कि जो बदलाव किया गया है, वह सही दिशा में नहीं जा रहा है या फिर अपमार्केट के दौर में वह फिट नहीं है बल्कि इसकी ज्यादा संभावना है कि अखबारों के अपमार्केट में जाने की राह भी यही से निकलेगी और संभवना से इंकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले समय में अन्य अखबार भी इसी राह पर चलेंगे। हां, इस बदलाव पर कायम रहने के लिए दृढ़निश्चयी होना जरूरी है और इस प्रक्रिया को लंबे समय तक चलाये रखना भी जरूरी है।
बाजार के पैरोकार प्रचारित कर रहे हैं, विकास के मुद्दों पर बात करने की क्या जरूरत है, विकास की खबरों को पढ़ता कौन है?
पर भोपाल जागरण के इस उत्तरदायित्वबोध के कारण उसकी विश्वसनीयता में भी इजाफा हुआ है। समाज के वंचित और बहिष्कृत समुदाय के मुद्दे को अखबार में स्थान देते हुए उनकी आवाज को मुखरता देते हुए इसने सही मायने में मानवीयता को महत्व दिया है, जिसके गुम हो जाने की चिंता आज हर किसी को सता रही है।
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Tuesday, April 22, 2008
श्वास, ब्लैक और तारे जमीं पर
पिछले तीन वर्षों में तीन अच्छी फिल्में आईं - श्वास, ब्लैक और तारे जमीं पर। तीनों ही फिल्मों में एक समानता थी, वह यह कि इनकी विषय-वस्तु बच्चों से जुड़ी है। फिल्मांकन, छायांकन, संवाद, सीन, कहानी सभी मामले में ये फिल्में सशक्त थी। बॉक्स ऑफिस पर श्वास थोडी पीछे रही पर ब्लैक और तारे जमीं पर ने तो अपने को सफल फिल्मों में शुमार करवा लिया। श्वास को भले ही ब्लैक और तारे जमीं पर जितनी सफलता नहीं मिली हो पर उसे ऑस्कर की दौड़ में शामिल होने का सौभाग्य जरूर मिल गया। यद्यपि उसे ऑस्कर तो नहीं मिला पर वैश्िवक ख्याति जरूर मिल गई।
तीनों फिल्मों को समीक्षकों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की पर इनमें जो बुनियादी अंतर है, उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया। श्वास में एक ऐसे बच्चे की कहानी को दर्शाया गया है, जो गांव के वातावरण से आता है और जिसकी आर्थिक स्िथति बहुत बेहतर नहीं है। इसमें दर्शाये गए संघर्ष की थीम दूसरी फिल्मों की तरह नहीं है पर इसके बावजूद तुलना इसलिए जायज है कि तीनों फिल्मों का दौर एक है। अन्य दो फिल्मों (ब्लैक और तारे जमीं पर) के बच्चे उच्च आय वर्ग के परिवार के हैं और उनके लिए एक शिक्षक रखना या बोर्डिंग स्कूल में अपने बच्चे को भेजना आसान है पर सामान्य परिवार या ग्रामीण परिवेश के बच्चों के जीवन में ऐसा परिवर्तन किस तरह से आएगा, इसका हल ढूंढने में ये फिल्में नाकाम है।
गांवों की शालाएं आज भी मूलभूत सुविधाओं से विहीन हैं, शिक्षक ढूंढे नहीं मिलते। इन हालात में ब्लैक और तारे जमीं पर के शिक्षकों जैसे शिक्षक मिलना उन बच्चों के लिए तारे तोड़ कर लाने जैसा है।
इस बात पर शक नहीं कि ब्लैक और तारे जमीं पर ने अपने समय के सशक्त सवालों को उठाया है पर परिवेश के अभाव में या यूं कहे कि बाजार के दबाव में ये एक खास वर्ग का प्रतिनिधित्व करती नजर आती है।
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तीनों फिल्मों को समीक्षकों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की पर इनमें जो बुनियादी अंतर है, उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया। श्वास में एक ऐसे बच्चे की कहानी को दर्शाया गया है, जो गांव के वातावरण से आता है और जिसकी आर्थिक स्िथति बहुत बेहतर नहीं है। इसमें दर्शाये गए संघर्ष की थीम दूसरी फिल्मों की तरह नहीं है पर इसके बावजूद तुलना इसलिए जायज है कि तीनों फिल्मों का दौर एक है। अन्य दो फिल्मों (ब्लैक और तारे जमीं पर) के बच्चे उच्च आय वर्ग के परिवार के हैं और उनके लिए एक शिक्षक रखना या बोर्डिंग स्कूल में अपने बच्चे को भेजना आसान है पर सामान्य परिवार या ग्रामीण परिवेश के बच्चों के जीवन में ऐसा परिवर्तन किस तरह से आएगा, इसका हल ढूंढने में ये फिल्में नाकाम है।
गांवों की शालाएं आज भी मूलभूत सुविधाओं से विहीन हैं, शिक्षक ढूंढे नहीं मिलते। इन हालात में ब्लैक और तारे जमीं पर के शिक्षकों जैसे शिक्षक मिलना उन बच्चों के लिए तारे तोड़ कर लाने जैसा है।
इस बात पर शक नहीं कि ब्लैक और तारे जमीं पर ने अपने समय के सशक्त सवालों को उठाया है पर परिवेश के अभाव में या यूं कहे कि बाजार के दबाव में ये एक खास वर्ग का प्रतिनिधित्व करती नजर आती है।
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नये दौर में नया दौर
फिल्म नया दौर में अभिनेता दिलीप कुमार ने अपने बेहतर अभिनय से पूरे देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था। वाकई उनका अभिनय इस फिल्म में देखने लायक है। लेकिन बात यहीं खत्म होने के बजाय यहीं से शुरू होती है। यह फिल्म उस दौर की है, जब देश के विकास की गति दी जा रही थी। फिल्म को देखते ही पहली नजर में इस बात का अहसास हो जाता है कि इस पर नेहरूयीन समाजवाद का मुलम्मा चढा हुआ है।
उस दौर की अधिकांश फिल्में कुछ ऐसी ही हुआ करती थी पर हम बात न तो राज कपूर की करेंगे, न मनोज कुमार की और न ही दिलीप कुमार की। हम यहां सिर्फ फिल्म की कहानी की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं। कहानी का मूल सार यह है कि इसमें एक पूंजीपति है, जो अपनी पूंजी का विस्तार करना चाहता है और इसके लिए वह नई-नई मशीनों को अपनी फैक्टरी में लगाता है और मजदूरों को निकाल देता है। गांव के अधिकांश लोग बेरोजगार हो जाते हैं। मालिक और मजदूर के बीच संघर्ष चलता है पर हिन्सक नहीं। फिल्म का मुख्य केन्द्र मशीन और मानव के बीच के संघर्ष को दिखाना है। अंत में यह दिखाया जाता है कि मानव की जीत होती है। संदेश यह है कि मनुष्यों को हटाकर मशीनें न लगाई जाय बल्िक मशीनों को सहयोगी की भूमिका में देखा जाय। विकास के लिए मशीनों को खारिज करने के बजाय उसके बेहतर इस्तेमाल पर जोर दिया गया है।
आज के दौर में इस फिल्म को युवा पीढी न तो पसंद करेगा और न ही इस फिल्म को प्रमोट किया जाएगा। 1990 के बाद की दुनिया में ऐसी फिल्में रूकावट मानी जाएगी। वजह साफ है, वैश्िवक पूंजी के खिलाफ है यह फिल्म।
दुखद बात यह है कि आज फिल्मों को कला के ढांचे में बांध कर रखने की कोशिश की जा रही है। यह साजिश है। कला किसके लिए है क्या आम आदमी से या फिर समाज से कट कर कला जीवित रह सकती है। यह विचार करने की जरूरत है। साजिशन ऐसी फिल्मों को समाज से बाहर किया जा रहा है। नये दौर में नया दौर जैसी फिल्मों की बहुत जरूरत है तमाम खामियों के बावजूद। वैश्वीकरण की प्रक्रिया से लडने में ऐसी कला की जरूरत है जो अपनी तमाम व्यावसायिकता के बाद भी जनपक्षीय हों। http://technorati.com/tag/blogathonindia" rel="tag">blogathonindia, http://technorati.com/tag/blogathonindia1" rel="tag">blogathonindia1
उस दौर की अधिकांश फिल्में कुछ ऐसी ही हुआ करती थी पर हम बात न तो राज कपूर की करेंगे, न मनोज कुमार की और न ही दिलीप कुमार की। हम यहां सिर्फ फिल्म की कहानी की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं। कहानी का मूल सार यह है कि इसमें एक पूंजीपति है, जो अपनी पूंजी का विस्तार करना चाहता है और इसके लिए वह नई-नई मशीनों को अपनी फैक्टरी में लगाता है और मजदूरों को निकाल देता है। गांव के अधिकांश लोग बेरोजगार हो जाते हैं। मालिक और मजदूर के बीच संघर्ष चलता है पर हिन्सक नहीं। फिल्म का मुख्य केन्द्र मशीन और मानव के बीच के संघर्ष को दिखाना है। अंत में यह दिखाया जाता है कि मानव की जीत होती है। संदेश यह है कि मनुष्यों को हटाकर मशीनें न लगाई जाय बल्िक मशीनों को सहयोगी की भूमिका में देखा जाय। विकास के लिए मशीनों को खारिज करने के बजाय उसके बेहतर इस्तेमाल पर जोर दिया गया है।
आज के दौर में इस फिल्म को युवा पीढी न तो पसंद करेगा और न ही इस फिल्म को प्रमोट किया जाएगा। 1990 के बाद की दुनिया में ऐसी फिल्में रूकावट मानी जाएगी। वजह साफ है, वैश्िवक पूंजी के खिलाफ है यह फिल्म।
दुखद बात यह है कि आज फिल्मों को कला के ढांचे में बांध कर रखने की कोशिश की जा रही है। यह साजिश है। कला किसके लिए है क्या आम आदमी से या फिर समाज से कट कर कला जीवित रह सकती है। यह विचार करने की जरूरत है। साजिशन ऐसी फिल्मों को समाज से बाहर किया जा रहा है। नये दौर में नया दौर जैसी फिल्मों की बहुत जरूरत है तमाम खामियों के बावजूद। वैश्वीकरण की प्रक्रिया से लडने में ऐसी कला की जरूरत है जो अपनी तमाम व्यावसायिकता के बाद भी जनपक्षीय हों। http://technorati.com/tag/blogathonindia" rel="tag">blogathonindia, http://technorati.com/tag/blogathonindia1" rel="tag">blogathonindia1
Monday, April 21, 2008
सूखी धरती पर राजनीति की फसल
मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में भयावह सूखा पड़ा है पर लोगों को राहत नहीं मिल रहा है। इस क्षेत्र में न खाने को अन्न है और न ही पीने को पानी। विकल्प सिर्फ़ एक ही है - पलायन। लोगों का पलायन जारी है और उन्हें रोकने के लिए किए जा रहे तमाम उपाय नाकाम हैं। हाल ही में कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी ने इस क्षेत्र का दौरा कर राजनीति को गरमा दिया है। भाजपा, कांग्रेस और बसपा में राजनीतिक खिंचातानी शुरू हो गई है। लोग एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं पर लोगों को राहत नहीं मिल रहा है। पानी के लिए महिलाओं को आधा दिन बिताना पड़ता है, तब जाकर वे चार-छः घड़ा पानी जुटा पाती आती है। मवेशियों को लोग खुला छोड़ रहे है। कोई विकल्प नहीं है। लोग कर्ज में डूब गए हैं। बुजुर्ग भूखमरी के कगार पर हैं। पर किसी पार्टी में एकजुट होकर हल निकालने और राहत पहुँचाने का कोई प्रयास नहीं हो रहा है उल्टे सूखी धरती पर राजनीति की फसल काटने की तैयारी हो रही है, क्योंकि कुछ महीने बाद ही मध्यप्रदेश में विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं।
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