पिछले तीन वर्षों में तीन अच्छी फिल्में आईं - श्वास, ब्लैक और तारे जमीं पर। तीनों ही फिल्मों में एक समानता थी, वह यह कि इनकी विषय-वस्तु बच्चों से जुड़ी है। फिल्मांकन, छायांकन, संवाद, सीन, कहानी सभी मामले में ये फिल्में सशक्त थी। बॉक्स ऑफिस पर श्वास थोडी पीछे रही पर ब्लैक और तारे जमीं पर ने तो अपने को सफल फिल्मों में शुमार करवा लिया। श्वास को भले ही ब्लैक और तारे जमीं पर जितनी सफलता नहीं मिली हो पर उसे ऑस्कर की दौड़ में शामिल होने का सौभाग्य जरूर मिल गया। यद्यपि उसे ऑस्कर तो नहीं मिला पर वैश्िवक ख्याति जरूर मिल गई।
तीनों फिल्मों को समीक्षकों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की पर इनमें जो बुनियादी अंतर है, उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया। श्वास में एक ऐसे बच्चे की कहानी को दर्शाया गया है, जो गांव के वातावरण से आता है और जिसकी आर्थिक स्िथति बहुत बेहतर नहीं है। इसमें दर्शाये गए संघर्ष की थीम दूसरी फिल्मों की तरह नहीं है पर इसके बावजूद तुलना इसलिए जायज है कि तीनों फिल्मों का दौर एक है। अन्य दो फिल्मों (ब्लैक और तारे जमीं पर) के बच्चे उच्च आय वर्ग के परिवार के हैं और उनके लिए एक शिक्षक रखना या बोर्डिंग स्कूल में अपने बच्चे को भेजना आसान है पर सामान्य परिवार या ग्रामीण परिवेश के बच्चों के जीवन में ऐसा परिवर्तन किस तरह से आएगा, इसका हल ढूंढने में ये फिल्में नाकाम है।
गांवों की शालाएं आज भी मूलभूत सुविधाओं से विहीन हैं, शिक्षक ढूंढे नहीं मिलते। इन हालात में ब्लैक और तारे जमीं पर के शिक्षकों जैसे शिक्षक मिलना उन बच्चों के लिए तारे तोड़ कर लाने जैसा है।
इस बात पर शक नहीं कि ब्लैक और तारे जमीं पर ने अपने समय के सशक्त सवालों को उठाया है पर परिवेश के अभाव में या यूं कहे कि बाजार के दबाव में ये एक खास वर्ग का प्रतिनिधित्व करती नजर आती है।
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Tuesday, April 22, 2008
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2 comments:
this is a relevant post which raises a due concern wherein even films do focus on urban rich..
श्वास तो देखी नहीं, ब्लैक पसन्द नहीं आई, तारे अच्छी लगी।
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