भारत में खेलों की संख्या इतनी ज्यादा रही है कि उसकी गिनती तो दूर उतने खेलों में भाग लेना भी एक व्यक्ति के लिए मुश्किल रहा है। क्रिकेट की लोकप्रियता के पहले ग्रामीण अंचलों मे कई ऐसे खेल थे, जिन्हें खेलते हुए हम पले-बढ़े हैं पर ज्यों-ज्यों क्रिकेट लोकप्रिय होता गया हम (मैं) उन खेलों याद तो कर पाते हैं पर उनके नाम याद करने के लिए दिमाग पर जोड़ देना पड़ता है। बहुत ही मजेदार खेल हुआ करते थे, जो खेतों और बगीचा से जुड़े हुए थे।
आंखमिचौली सबसे लोकप्रिय खेल हुआ करता था, जब शाम को सारे बच्चे इकट्ठे होकर गलियों में धूम मचाया करते थे। बगीचे में दोल्हा-पाती (पेड़ की डालियों पर लटकना और कूदना) खेलते हुए पेड़-पत्तों से दोस्ती करने का मजा ही कुछ और था। लौटते वक्त रास्तें के किसी खेत से मूली, गाजर, बैंगन, टमाटर, भिंडी आदि को कच्चे खाने का आनंद ही कुछ अलग था। स्कूलों में कबड्डी और बुढ़िया कबड्डी सबसे लोकप्रिय। हां, कांचा को तो मैं भूल ही गया। और भी न जाने क्या-क्या।
यह मानना थोड़ा दुखदायी होगा कि क्रिकेट के बाद इन खेलों का अस्तित्व शायद ही बच पाएगा। हम इस बात का जिक्र पहले के पोस्ट में कर चुके हैं कि क्रिकेट को बढ़ाने में बाजारवाद का सबसे बड़ा हाथ है।
आखिर इन खेलों में क्या खास रहा है कि इनके नहीं रहने से बाजार को लाभ मिलेगा। सारे खेलों की बात हम नहीं करें तो भी हम उपरोक्त तीन खेलों को केन्द्र में रखकर अपनी बात को आगे बढ़ाएं।
बाजारवाद का यह मूलमंत्र होता है कि सामूहिकता को तोड़ा जाए। यदि गलियों में बच्चे एक साथ खेलेंगे तो उनमें सामूहिकता की भावना तो आएगी ही पर यदि इस खेल को खत्म करने के लिए दूसरे खेलों को बढ़ावा दिया जाए तब क्या होगा? रोज क्रिकेट। कभी किसी के साथ, तो कभी किसी के साथ, नए-नए रूप में। तो बच्चे गलियों में निकलेंगे या टी.व्ही. सेट से चिपके रहेंगे। एकल परिवार में उपभोक्तावाद को बढ़ाने में मदद तो मिलेगा ही।
दूसरा महत्वपूर्ण खेल है पेड़-पौधों के साथ। इस खेल को खेलने से कहीं न कहीं बच्चों को अपने प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ाव महसूस करते हैं। यदि उनका प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ाव हो गया, तो बहुराष्ट्रीय कंपनियां संसाधनों का दोहन कैसे कर पाएंगी।
तीसरा मामला स्कूल में खेले जाने वाले खेलों से जुड़ा है। अफसोसजनक बात है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने के लिए कमरे नहीं है, तो खेल का मैदान कहां से आएगा। यदि इन खेलों को बढ़ावा दिया जाएगा, तो इसके लिए स्कूलों में खेल के मैदान की मांग उठेगी। फिर बात बढ़ेगी और बेहतर शिक्षा की मांग उठेगी। क्या इससे सरकार को परेशानी नहीं होगी, क्या शिक्षा के व्यापार में उतरी कंपनियों को झटका नहीं लगेगा?
उम्मीद है कि इन बातों को जानकर आप नए सिरे से इस मामले को समझ पाएंगे कि खेल की दुनिया में क्या हो रहा है और लिखे हुए से आगे की बात सोचेंगे।
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Friday, April 25, 2008
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1 comment:
sir ji apki bhavno ki kadar karta hoon lekin kya kare ye kambakht cheez hi asi hai.
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